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तीसरा प्रकाश
२९६ विषय में तो प्रश्न के अनुसार गौणरूप से होती है। सिर परमेष्ठी ऐसे नहीं हैं-वे निःथेयस का न तो मत्यरूप से उपदेश देते हैं
और न गोणरूप से, क्योंकि वे भनुपदेशक हैं। इसलिए 'परमहितोपवेशी' विशेषण कहने से उनमें प्रतिव्याप्ति नहीं होती । प्राप्त के साल में प्रमाण पहले ही ( द्वितीय प्रकाशमें ) प्रस्तुत कर 5 माये हैं। नैयायिक प्रावि के द्वारा माने गये प्राप्त सर्व न होने से प्राप्ताभास हैं-सम्ये प्राप्त नहीं हैं । अतः उनका व्यवच्छेद (निराकरण) 'प्रत्यक्षशान से सम्पूर्ण पदार्थों का नाता' इस विशेषण से ही हो जाता है।
शमा-नयायिकों के द्वारा माना गया प्राप्त क्यों सर्वज 10
समाधान -- नेपायिकों ने जिसे प्राप्त माना है वह अपने जान कर जासा नहीं हैं, क्योंकि उनके यहां ज्ञान को अस्वसदेवी-शानातरोध माना गया है। दूसरी बात यह है कि उसके एक हो जान है उसको आमने पासा झानान्तर भी नहीं है। अन्यथा उनके अभिमत प्राप्त में 15 वो मानों के सद्भाव का प्रसङ्ग प्रायेगा और दो शाम एक साथ हो नहीं सकते, क्योंकि सजातीय वो गुण एक साथ नहीं रहते ऐसा नियम है। प्रतः अब यह विशेषणभूत अपने ज्ञान को ही नहीं जानता है तो उस मानविशिष्ट प्रात्मा को ( मएने को ) कि 'मैं सहूँ" ऐसा कैसे जान सकता है? इस प्रकार अब बह भनात्मर है तब 20 प्रसर्वश ही है-सर्वन नहीं है। भोर सुगतादिक सच्चे प्राप्त नहीं है, इसका विस्तृत निरूपण प्राप्तमीमांसाविवरण–प्रष्टशती में श्रीमकललेव ने सपा प्रष्ट सहस्रो में श्रीविद्यानन्द स्वामी ने किया है। प्रत, यहाँ और अधिक विस्तार नहीं किया गया। बाल्यका