Book Title: Nyayadipika
Author(s): Dharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 318
________________ तीसरा प्रकाश १६३ सकती। कहा भी है- “ एतद्द्वयमेवानुमानाङ्गम" [परीक्षा० ३-३७ ] इसका अर्थ यह है कि प्रतिक्षा और हेतु पे दो ही अनुमान अर्थात् परार्थानुमान के अङ्ग ( श्रवयव) हैं। यहाँ सूत्र में 'वावे' शब्द को और जोड़ लेना चाहिए। जिसका तात्पर्य यह है कि विजिगीषुरुष्षा में परार्थानुमान के प्रतिनर और हेतु ये दो हो अङ्ग हैं। यहाँ सूत्र में 5 अवधारणार्यक एवकार शब्द के प्रयोग द्वारा उदाहरणाविक काव्य छेद किया गया है। अर्थात् उदाहरण भाविक परार्थानुमान के अवयव नहीं हैं, यह प्रकट किया गया है। क्योंकि वाद ( शास्त्रार्थ ) का अधिकार व्युत्पन्न को ही है और व्युत्पन्न केवल प्रतिज्ञा तथा हेतु के प्रयोग से ही जाने जानेवाले उदाहरण श्रादि के प्रतिपाद्य अर्थ को जानने में 10 समर्थ है। उसको जानने के लिए उदाहरणादिक की आवश्यकता नहीं है । यदि गम्यमान ( जश्ना जानेवाले) अर्थ का भी पुनः कथन किया जाये, तो पुनस्तता का प्रसङ्ग पाता है । तात्पर्य यह कि प्रतिज्ञा और हेतु के द्वारा जान लेने पर भी उस अर्थ के कथन के लिए उदाहरणाविक का प्रयोग करना नक्क्त है। प्रसः उदाहरणाबिक परार्थानुमान 15 के श्रङ्ग नहीं हैं। शङ्का-यदि ऐसा है तो प्रतिज्ञा के कहने में भी पुनरुक्तता भाती है; क्योंकि प्रतिक्षा द्वारा कहा जाने वाला पक्ष भी प्रकरण, व्याप्तिप्रदर्शन भावि के द्वारा ज्ञात हो जाता है। इसलिए लिङ्ग-वचनरूप एक हेतु का ही विजिगीषुकथ्था में प्रयोग करना चाहिये । 20 समाधान-बौद्धों का यह कमन ठौक नहीं है। इस प्रकार कहकर वे अपनी जड़ता को प्रकट करते हैं; क्योंकि केवल हेतु के प्रयोग करने पर व्युत्पन्न को भी साध्य के सन्देह की निवृति नहीं हो सकती है। इस कारण प्रतिक्षा का प्रयोग अवश्य करना चाहिए । कहा भी है---"साध्य ( साध्यथमं के प्राकार) का सदेह दूर करने के 25

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