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मुस्प और निष्पाधिक एवं निरवधि सर्वजता मानी गई है। वह सांस्ययोमाविकी तरह जीवन्मुक्त अवस्था तक ही सीमित नहीं रहती, मुक्त प्रवस्थामें भी मन्तकाल तक बनी रहती है । क्योंकि ज्ञान प्रास्माका मूलभूत पिषी स्वभाव है और सर्वज्ञता प्रावरणाभावमें उसीका विकसिन पूर्णरूप है। इतरदर्शनोंकी तरह वह न तो मात्र यात्ममनः सयोगादि जन्य है और न योगविभुति ही है । या घमंभूषणने स्वामी समन्तभद्रकी सरणिसे सर्वशताका साधन किया है और उन्हींकी सर्वज्ञत्वनायिका सारिकापाका स्फुट विवरण किया है। प्रथम तो सामान्य सर्वनका समर्थन किया है। पान 'निर्दोषत्व' हेतुके द्वारा अरहन्त जिनको हो मर्वज सिद्ध किया है ।
१४. परोक्ष- -
जनदर्शनमें प्रमाणका दूसरा भेद परोक्ष है । यद्यपि बौद्धान' परोक्षा शब्दका प्रयोग अनुमानके विषयभूत अर्थमें किया है। क्योंकि उन्होंने दो प्रकारका प्रर्थ माना है—१ प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष तो साक्षाक्रियमाण है और परोक्ष उससे भिन्न है तथापि जैन परम्परा र 'परोक्ष' शब्दका प्रयोग प्राचीन समयसे परोक्ष ज्ञानमें ही होता चला आ रहा है । दूसरे प्रत्यक्षता और परोक्षला वस्जुनः ज्ञाननिाल धर्म है । भागको प्रत्यक्ष एवं परोक्ष होने से अर्थभी उपचारसे प्रत्यक्ष और परोक्ष कहा जाता है। यह अवश्य है कि जैन दर्शनके इस 'परोक्ष' शब्द का व्यवहार और उसकी परिभाषा दूसरों को कुछ विलक्षण-सी मालूम होगी परन्तु
१ "द्विविधो अर्थः प्रत्यक्ष; परोक्षाच । तत्र प्रत्यक्षविषयः साक्षादिक्रयमाणः प्रत्यक्षः । परोक्ष: गुनरमाक्षात्पररिच्छिद्यमानोनुमेयत्वादनुमानविषय: ।"-प्रमाणप० पृ० ६५ । न्यायवा तात्प० पृ० १५८ । २ "ज परदो विष्णाणं तं तु परोक्न त्ति भगिदमत्थेमु । जदि केवलेण पादं हृवदि हि जीवेण पञ्चवलं ॥"-प्रवचनसागा० ५८ ।