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प्रस्तावना
नई प्रौर माणिक्यनन्दिने' दोसे ज्यादा वाहे हैं और यही मान्यता अनपरम्परामें प्राय: सर्वत्र प्रतिष्ठित हुई है. इससे मालूम होना है कि प्रत्यभिज्ञानके दो भेदोंकी मान्यता विद्यानन्दकी अपनी है । प्रा. धर्मभूषणने पृ० १७ पर इस ग्रन्थवी नामोल्लेख के साथ एक कारिका उद्धत की है।
पत्रपरीक्षा-यह भी प्राचार्य विद्यानन्दको रचना है । इसमें दर्शनात पलक्षणों सालोगना जाष्टिो मा बल मुन्दर लक्षण किया है तथा प्रतिज्ञा और हेतु इन दो अवयवोंको ही अनुमानान बतलाया है । न्यायदीपिका पृ० ८१ पर इमग्रन्यका नामोल्लेख हुमा है और उसमें अवयवोंके विचारकको विनारसे जानने की सूचना की है।
प्रमेयकमलमार्तण्ड-यह प्रा. माणिक्यनन्दिके 'परीक्षामुख' सूत्रप्रन्थपर रचा गया प्रभाचन्द्राचार्यका बृहत्काय टोकाग्रंथ है। इसे पिछले लघु अनन्तवीर्य ( प्रमेय रत्नमालाकार } ने 'उदारचन्द्रिका' को उपमा दी और अपनी कृति--प्रमेयरलमालाको उसके सामने जुगुनके सदृश बतलाया है इससे प्रमेयकमलमार्तण्डका महत्व ख्यापित हो जाता है । निःसन्देह मात्तंण्डके प्रदीप्त प्रकाशमें दर्शनान्तरीय प्रमेय स्फुटतया भासमान होते हैं। स्वतत्त्व, परतत्व और यथार्थता, अयथार्थताका निणंच करने में कठिनाई नहीं मालूम होती । इस ग्रन्थके रचयिता प्रा. प्राचन्द्र ईसाकी १० वीं और ११वीं शताब्दी ( १८०से १०६५ ई० ) के विद्वान् माने जाते है। इन्होंने प्रमेयकमलमार्तण्डके अलावा न्यायकुमुदचन्द्र, तत्त्वार्यवृत्तिपदविवरण, शाकटायनन्यास, शब्दाम्भोजभास्कर प्रवचनसारस रोजभास्कर, गद्यकथाकोश. रलकरण्द्वश्रावकाचारटीका और समाधितंत्रटीका मादि अन्योंकी रचना की है। इनमें गद्यकथाकोश स्वतन्त्र कृति है मौर शेष
१ देखो, लघीयका० २१ १ २ देखो, परीक्षामु० ३.५ से ३.१० । ३ देखो, न्यायकुमुद वि. मा. प्र. पृ० ५८ तथा प्रमेयकमनमातंग प्रस्ता० पृ. ६७ ।