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पहला प्रकाश
हुई अग्निको जलाबि पदार्थों से जुदा करती है । इसलिए उष्णता धग्नि का श्रात्मभूत लक्षण है। जो वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ न हो उससे पृष्पक हो उसे अनात्मभूत लक्षण कहते हैं। जैसे दण्डो पुरुष का दण्ड । 'दण्डी को लाभों ऐसा कहने पर दण्ड पुरुष में न मिलता हुआ ही पुरुष को पुरुषभिन्न पदार्थों से पृथक 5 करता है । इसलिए पुरुष का प्रभूला है। अंत तत्वार्थ राजदात्तिकभाष्य में कहा है: -- 'अग्नि को उष्णता प्रात्मभूत लक्षण है और देवदत्त का दण्ड अनात्मभूत लक्षण है ।' आत्मभूत और धनरभूत लक्षण में यही भेद है कि प्रात्मभूत लक्षण वस्तु के स्वरूपमय होता है और अनात्मभूत लक्षण वस्तु के 10 स्वरूप से भिन्न होता है और वह वस्तु के साथ संयोगादि सम्बन्ध से सम्बद्ध होता है ।
'असाधारण धर्म के कथन करने को लक्षण कहते है ऐसा किन्हीं ( नैयायिक और हेमचन्द्राचार्य) का कहना है पर वह ठीक नहीं है । क्योंकि लक्ष्यरूप धमिवचन का लक्षण रूप धर्मवचन के साथ सामा- 15 नाधिकरण्य ( शाब्द सामानाधिकरण्य) के प्रभाव का प्रसङ्गः प्राता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है:
यदि असाधारण धर्म को लक्षण का स्वरूप माना जाय तो लक्ष्यचचम और लक्षणवचन में सामानाधिकरण्य नहीं बन सकता । यह नियम है कि लक्ष्य लक्षणभावस्थल में लक्ष्यवचन और 20 लक्षणवचने में एकार्थप्रतिपादकत्वरूप सामानाधिकरण्य अवश्य होता है। जैसे 'ज्ञानी जीवः' अथवा 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' इनमें यह है कि श्रात्मभूत और अनात्मभूत लक्षणों के कथन से ही उनका कथन हो जाता है। दूसरे, उन्होंने राजवातिककार की दृष्टि स्वीकृत की है जिसे माचार्य विद्यानन्द ने भी अपनाया है। देखो, स० श्लो० पृ० ३१८