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न्याय-दीपिका
सम्भव नहीं है । यतः धारावाहिकज्ञानों में उक्त लक्षणकी श्रव्याप्ति
निश्चित है ।
प्राभाकरोंके प्रमाण-लक्षण को परीक्षा
प्राभाकर प्रभाकर मतानुयायी 'अनुभूतिको प्रमाणका लक्षण 5 मानते हैं; किन्तु उनका भी यह लक्षण युक्तिसङ्गत नहीं है; क्योंकि 'अनुभूति' शब्दको भावसाधन करनेपर करणरूप प्रमाण में और करण साधन करनेपर भावरूप प्रमाण में प्रव्याप्ति होती है । कारण, करण और भाव दोनों को हो उनके यहाँ प्रमाण माना गया है। जैसा कि शालिकानाथने कहा है-
'जब प्रमाण शब्दको 'प्रमितिः किया जाता है उस समय 'ज्ञान' ही इस प्रकार करणसाधत कर
प्रमाणम्' इस प्रकार भावसाधन प्रमाण होता है और 'प्रमोयतेऽनेन' मारना कप प्रमाण होता है।' अतः अनुभूति ( अनुभव ) को प्रमाणका लक्षण मानने में अध्याप्ति दोष स्पष्ट है । इसलिए यह लक्षण भी सुलक्षण
15 नहीं है ।
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नमाथिकोंके प्रमाण-लक्षणकी परीक्षा --
'प्रमाके प्रति जो करण है वह प्रमाण है' ऐसी नैयायिकोंकी मान्यता है । परन्तु उनका भी यह लक्षण निर्दोष नहीं है; क्योंकि उनके द्वारा प्रमाणरूप में माने गये ईश्वरमें ही वह थव्याप्त है । 20 कारण, महेश्वर प्रमाका प्राश्रय है, करण नहीं है । ईश्वरको प्रमाण माननेका यह कथन हम अपनी प्रोरसे प्रारोपित नहीं कर रहे हैं। किन्तु उनके प्रमुख प्राचार्य उदयनने स्वयं स्वीकार किया है कि 'तन्मे प्रमाणं शिवः' प्रर्थात् 'यह महेश्वर मेरे प्रमाण हैं'। इस अव्याप्ति दोषको दूर करनेके लिये कोई इस प्रकार 25 व्याख्यान करते हैं कि 'जो प्रमाका साधन हो प्रया प्रभाका प्राश्य हो यह प्रमाण है ।' मगर उनका यह व्याश्यान युक्तिसङ्गत नहीं है ।