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न्याय-दीपिका
कहीं प्रमाण तथा विकल्प दोनों से होती है। प्रत्यक्षारिक प्रमाणों में से किसी एक प्रमाण से धर्मों का निश्चय होना 'प्रमाणसिद्ध धर्मो' है। जिसकी प्रमाणता या अप्रमाणता का निश्चय नहीं हुमा है ऐसे ज्ञान से
जहाँ धर्मों की सिद्धि होती है उसे 'विकल्पसिद्ध धर्मों' कहते हैं। और 5 जहां प्रमाण तया विकल्प दोनों से धर्मों का निर्णय किया जाता है वह 'प्रमाणविकल्पसिद्ध पौं' है।
प्रमाणसिख धर्मों का उदाहरण-'धुम से अग्नि को सिद्धि करने में पर्वत' है । क्योंकि इस प्रत्यक्ष से बाल का है:
विकल्पसिख धर्मों का उदाहरण इस प्रकार है-'सवंत है, 10 क्योंकि उसके सद्भाव के बाषक प्रमाणों का प्रभाव अच्छी तरह
निश्चित है, अर्थात् --उसके अस्तित्व का कोई गाधक प्रमाण नहीं है।' पहाँ सद्भाव सिद्ध करने में सज' रूप धर्मी विकल्पसिय पर्मा है। अथवा 'स्वरविषाण नहीं है, क्योंकि उसको सिद्ध करने वाले प्रमाणों
का प्रभाव निश्चित है' यहाँ प्रभाष सिद्ध करने में खरविषाग' 15 विकस्पसिद्ध धर्मों है । 'सर्वज्ञ' सद्भाव सिद्ध करने के पहले प्रत्यक्षादिक
किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं है, किन्तु केवल प्रतीति (कल्पना)से सिट है, इसलिए वह विकरुपसिद्ध प्रमों है। इसी प्रकार 'खरविधान प्रसद्भात्र सिद्ध करने के पहले केवल कल्पना से सिद्ध है, अतः वह भी
विकल्पसिद्ध धर्मी है। 20 उभयसिद्ध धमों का उदाहरण-शब्द परिणमनशील है. क्योंकि
वह किया जाता है-तालु आदि की क्रिया से उत्पन्न होता है।' यहाँ शब्द है। कारण, वर्तमान शब्द तो प्रत्यक्ष से जाने जाते हैं, परन्तु भूतकालीन और भविष्यत्कालीन शब्द केवल प्रतोति से सिद्ध हैं
और वे समस्त शब्द यहाँ धर्मी हैं, इसलिए 'शब्द' रूप धर्मा प्रमाण 25 तथा विकल्प दोनों से सिद्ध अर्थात् --उभरसिद्ध धर्मों है। प्रमाण