________________
दूसरा प्रकाश प्राप्यकारिता की सिद्धि होती है और प्राप्पकारिता हो सन्निकर्ष है। प्रतः चक्षु इन्द्रिय में सन्निकर्ष की प्रत्याप्ति नहीं है। अर्थात् चक्षु इन्द्रिय भी सन्निकर्ष के होने पर ही रूपज्ञान कराती है। इसलिए सन्निकर्ष को प्रत्यक्ष मानने में कोई दोष नहीं है ?
समाधान नहीं; यह अनुमान सम्यक् भनुमान नहीं है---- 5 मानाभास है । वह इस प्रकार है :
इस अनुमान में 'स' परसे कौनसी चक्षु को पक्ष बनाया है ? लौकिक (गोलकाप) चक्षुको अथवा अलौकिक (किरणरूप) चको ? पहले विकल्प में, हेतु कासात्ययापविष्ट (बाधितविषय) नामका हेत्वा. भास) है। क्योंकि गोलकरूप लौकिक चा विषय के पास जाती हुई 10 किसी को भी प्रतीत न होने से उसकी विषय-प्राप्ति प्रत्यक्ष से बाधित है। दूसरे विकल्प में, हेतु प्राश्रयासिद्ध है; क्योंकि किरणरूप अलौकिक वक्ष प्रभो तक सिद्ध नहीं है। दूसरी बात यह है, कि वृक्ष को शाखा मौर चन्द्रमा का एक ही काल में प्रहण होने से चल भप्राप्यकारी ही प्रसिद्ध होती है। अतः उपर्युक्त अनुमानगत हेतु कालात्ययापविष्ट 15 मौर प्रापयासिद्ध होने के साथ ही प्रकरणसम (सत्प्रतिपा) भी है। इस प्रकार सन्निकर्ष के बिना भी चक्षु के द्वारा रूपशान होता है। इसलिए सन्निकर्ष प्रव्याप्त होने से प्रत्यक्ष का स्वरूप नहीं है, यह बात सिद्ध हो गई।
इस सन्निकर्ष के प्रप्रमाण्य का विस्तृत विचार प्रमेयकमलमास 20 में [१-१ तथा २-४ ] अच्छी तरह किया गया है। संग्रहप्रन्थ होने के कारण इस लघु प्रकरण न्याप-दीपिका में उसका विस्तार नहीं किया। इस प्रकार न बौद्धाभिमत निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है और न यौगों का इन्द्रियार्थसन्निकर्ष । तो फिर प्रत्यक्षा का सक्षण क्या है ? विधवप्रतिभासस्वरूप ज्ञान ही प्रत्यक्ष है, यह भले प्रकार सिंस 25 हो गया।