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दूसरा प्रकाश
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निमित्त' स्पष्टता है। और वह उक्त तीनों ज्ञानों में मौजूद है। अतः जो ज्ञान स्पष्ट है यह प्रत्यक्ष कहा जाता है ।
अथवा व्युत्पत्ति अर्थ भी इनमें मौजूद है । 'प्रक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीति प्रक्ष आत्मा' अर्थात् जो व्याप्त करे—जाने उसे पक्ष कहते हैं और वह आत्मा है। इस व्युत्पत्ति को लेकर अक्ष शब्द का अर्थ 5 श्रात्मा भी होता है। इसलिये उस प्रक्ष- - श्रात्मा मात्रको अपेक्षा लेकर उत्पन्न होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहने में क्या बाधा है ? अर्थात् कोई बाधा नहीं है ।
शङ्का – यदि ऐसा माना जाय तो इन्द्रियजन्य ज्ञान अप्रत्यक्ष कहलायेगा ?
समाधान- हमें खेद है कि श्राप भूल कि इन्द्रियजन्य ज्ञान उपचार से प्रत्यक्ष हैं। हो, इसमें हमारी कोई हानि नहीं है
जाते हैं। हम कह श्राये हैं भतः वह वस्तुतः अप्रत्यक्ष
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इस उपर्युक्त विवेचन से 'इन्द्रियनिरपेक्ष ज्ञानको परोक्ष' कहनेकी मान्यता का भी खण्डन हो जाता है । क्योंकि अविशदता 15 ( अस्पष्टता) को ही परोक्ष का लक्षण माना गया है। तात्पर्य यह १ व्युत्पत्तिनिमित्त से प्रवृत्तिनिमित्त भिन्न हुआ करता है । जैसे गोशब्दका व्युत्पत्तिनिमित्त 'गच्छतीति गौ' जो गमन करे वह गो है, इस प्रकार 'गमनक्रिया' है और प्रवृत्तिनिमित्त 'गोत्य' है । यदि व्युत्पत्तिनिमित्त (गमनक्रिया) को ही प्रवृत्ति में निमित्त माना जाय तो बैठी या खड़ी गाय में गोशब्द की प्रवृत्ति नहीं हो सकती और गमन कर रहे मनुष्यादिमें भी गोशब्दकी प्रवृत्ति का प्रसङ्ग आयेगा । अतः गोशब्दकी प्रवृत्ति में निमित्त व्युतातिनिमित्तने भिन्न गोत्व' है । उसी प्रकार प्रकृत में प्रत्यक्ष वशब्दकी प्रवृत्तिमं व्युत्पत्तिनिमित्त 'क्षाश्रितत्त्र' से भिन्न 'स्पटत्व' है । मतः अवधि श्रादि तीनों ज्ञानों को प्रत्यक्ष कहने में कोई बाधा नहीं है ।