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तीसरा प्रकाश
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यदि प्रशक्य ( बाधित ) को साध्य माना जाय तो प्रनि में प्रनुष्णता ( उष्णता का प्रभाव ) आदि भी साध्य हो जायगी । अनभिप्रेत करे साध्य माना जाय तो प्रतिप्रसङ्ग नामका दोष आवेगा । तथा प्रसिद्ध को साध्य माना जाय, तो अनुमान व्यर्थ हो जायगा, साध्य की विधि के लिये तुम बिक जाता है 5 और वह साध्य पहले से प्रसिद्ध है। अतः शक्यादिरूप ही साध्य है । न्यायविनिश्चय में भी कहा है :--
साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम् ।
साध्याभासं विरुद्धादि साधनाविषयत्वतः ॥ १७२ ॥
बाधित को प्रसिद्ध का क्योंकि ये
इसका अर्थ यह है कि जो शक्य है, अभिप्रेत है और प्रप्रसिद्ध 10 है वह साध्य है और जो इससे विपरोत है वह साध्याभास है । यह साध्याभास कौन है ? विरुद्धादिक है । प्रत्यक्षादि से विरुद्ध कहते हैं । 'आदि' शब्द से अनभिप्रेत और ग्रहण करना चाहिए। ये तीनों साध्याभास क्यों हैं ? तीनों ही साधन के विषय नहीं हैं । अर्थात् साधन के विषय नहीं किये जाते हैं। इस प्रकार यह अक्कलदेव के प्राय का संक्षेप है। उनके सम्पूर्ण अभिप्राय को तो स्याद्वावविद्या पति श्री वादिराज जानते हैं । अर्थात् – प्रकलङ्कदेव की उक्त कारिका का विशव एवं विस्तृत व्याख्यान श्री वादिराज ने न्यायविनिश्चय के व्याख्यानभूत अपने न्यायविनिश्चयविवरण में किया है । कसजूदेव के पूरे प्राशय को तो वे ही जानते हैं। यहाँ सिर्फ उनके अभिप्राय के अंशमात्र को दिया है। साधन और साध्य दोनों को लेकर इलोकवालिक में भी कहा है जिसका अन्यथानुपपत्तिमात्र लक्षण है, प्रर्थात् जो न त्रिलक्षणरूप है और न पञ्चलक्षणरूप है, केवल प्रविनाभावविशिष्ट है यह साधन तथा जो शक्य है, अभिप्रेत है 25
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