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न्याय-दीपिका
है। इस तरह असाधारण धर्म को लक्षण कहने में असम्भव, अव्याप्ति और प्रतिव्याप्ति ये तीनों ही दोष पाते हैं। प्रतः पूर्वोक्त (मिली हुई अनेक वस्तुओं में से किसी एक वस्तु के अलग करानेवाले हेतुको लक्षण कहते हैं। ही लक्षण दोष है।
मना लक्षण-निर्देश है। __विरोधी नाना युक्तियों को प्रबलता और दुर्बलता का निर्णय करने के लिए प्रवृत्त हुए विचार को परीक्षा कहते हैं । वह परीक्षा यदि ऐसा हो तो ऐसा होना चाहिए और यदि ऐसा हो तो ऐसा नहीं होना चाहिए' इस प्रकार से प्रवृत्त होती है।
प्रमाण के सामान्य समणका कयन
प्रमान और नयका भी उद्देश सूत्र 'प्रमाणनयरपिगमः') में हो किया गया है। अब उनका लक्षण -निर्देश करना चाहिए। और परीक्षा पपावसर होगी । 'उद्देश के अनुसार लक्षण का कथन होता है इस न्याय के अनुसार प्रधान होने के कारण प्रथमतः सहिष्ट प्रमाण का पहले लक्षण किया जाता है। ___ 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' अर्यात-सच्चे ज्ञान को प्रभाण कहते हैं-मो सान यथार्थ है वहीं प्रमाण है । यहां 'प्रमाग' लक्ष्य है। क्योंकि उसका लक्षण किया जा रहा है और 'सम्यग्ज्ञानत्व' (सस्था जानपना ) उसका लक्षक है। क्योंकि वह 'प्रमाण' को प्रमानभिन्न पदायों से व्यावृत्त कराता है। गाय का जमे 'सास्नावि' और अग्नि का जैसे 'उष्णता' लक्षण प्रसिद्ध है। यहां प्रमाण के लक्षण में जो 'सम्यक' पद का निवेश किया गया है वह संशय, विपर्यय और प्रनष्यवसाय के निराकरण के लिए किया है; क्योंकि ये तीनों मान अप्रमाण हैं-मिथ्याज्ञान हैं। इसका खुलासा निम्न प्रकार