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न्याय-दीपिका
टीका कृतियाँ हैं । धर्मभूषणने न्यायदीपिका १०३० पर तो इस पंपका केवल नामोल्लेख और ५.४ पर नामोल्लेखके साथ एक वाक्यको भी। उमृत किया है।
प्रमाण-निर्णय-न्यायविनिश्चयविवरणटीकाके कर्ता भा० वादिराजसूरिका यह स्वतन्त्र तार्किक प्रकरण ग्रंय है। इसमें प्रमाणलक्षणनिर्णय, प्रत्यक्ष निर्णय, परोक्षनिर्णय और भागमनिर्णय ये चार निर्णय (परिच्छेद) हैं, जिनके नामोंसे ही ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय स्पष्ट मालम हो जाता है। न्या. बी पृ०
नाभाल्लखके साथ एक वाक्यको उद्धृत किया है।
कारुण्यकलिका-यह सन्दिग्य ग्रन्थ है । न्यायदीपिकाकारने पृ० १११ पर इस ग्रन्थका निम्न प्रकारसे उल्लेख किया है
'प्रपञ्चितमेतदुपाधिनिराकरणं कारकलिकायामिति विरम्यते' परन्तु बहुत प्रयत्न करनेपर भी हम यह निर्णय नहीं कर सके कि यह अन्य जनरचना है या जनेतर । प्रथया स्वयं ग्रन्थकारकी ही न्यायदोपिकाके अलावा यह अन्य दुसरी रचना है । क्योंकि अब तकके मुद्रित जैन और जनेतर ग्रन्थोंकी प्राप्त सूचियोंमें भी यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता। पत: ऐसा मालूम होता है कि यह या तो नष्ट हो चुका है या किसी लायोरीमें असुरक्षित रूपमें पड़ा है। यदि नष्ट नहीं सुना और किसी लायबरीमें है तो इसकी खोज होकर प्रकाशमें आना चाहिए। यह बहुत ही महत्वपूर्ण और अच्छा अन्य मालूम होता है। न्यायदीपिकाकारके उल्लेखसे विदित होता है कि उसमें विस्तारसे उपाधिका निराकरण किया गया है। सम्भव है गदाधरके 'उपाधिवाद' ग्रन्थका भी इसमें खण्डन हो।
स्वामीसमन्तभव--ये वीरशासनके प्रभावक, सम्प्रसारक और खास युगके प्रवर्तक महान् पापाय हुये हैं सुप्रसिख तार्किक भट्टाकलदेवने इन्हें कलिकालमें स्थानावरूपी पुष्पोदपिके वीर्षका प्रभावक बताया