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प्रस्तावना
है। प्राचार्ग जिनसेनने इनके वचनोंको भ० वीरके वचनतुल्य प्रकट किया है और एक शिलालेखमें' तो भ० वीरके तीर्थकी हजारगुणी वृद्धि करनेवाला भी कहा है । आ० हरिभद पोर विद्यानन्द जैसे बडे बडे आचार्योने उन्हें याविमुख्य' 'माग्रस्तुतिकार 'स्यामादन्यायमार्गका' प्रकाशक' आदि विशेषणों द्वारा स्मृत किया है इसमें सन्देह नहीं कि उनरवर्ती प्राचार्योने जितना गुणगान स्वामी समन्तभद्रका किया है उतना दूसरे प्राचार्यका नहीं किया । वास्तवमें स्वामी समन्तभद्र ने वीरशासनको जो महान् सेवा की है वह जनवाङ्मयके इतिहासमें सदा स्मरणीय एव ममर रहेगी। प्राप्तमीमांसा (देवागमस्तोत्र), गुक्त्यनुशासन, स्वयम्भूस्तोत्र रत्नकरण्डश्रावकाचार और जिनशतक (जिनस्तुतिशतक) ये पांच उपलब्ध कृतियाँ इनकी प्रसिद्ध है । तत्वानुशासन, जीवसिद्धि, प्रमाणपदार्थ, कमप्राभृलटीका प्रऔर गन्धहस्तिमहाभाष्य इन ५ ग्रन्थों के भी इनके द्वारा रखे जानेके उल्लेख ग्रन्थान्तरों में मिलते हैं। परन्तु अभी तक कोई उपलब्ध नहीं हुया । गन्धहस्तिमहाभाष्य (महाभाष्य) के सम्बन्ध में पहिले विचार कर पाया है। स्वामीसमन्तभद्र बौद्ध विद्वान नागार्जुन (१८१ई०) के समकालीन या कुछ ही समय बादके पौर दिग्नाग (३४५४२५६०) के पूर्ववर्ती विद्वान् है। अर्थात् इनका अस्तित्व-समय प्राय: ईसाको दूसरी और तीसरी शताब्दी है कुछ विद्वान इन्हें दिग्नाम (४२५ई. और धर्मकीति ( ६३५ई०) के उत्तरकालीन अनुमानित करते है।
१ देखो, अष्टशती पृ० २१ २ देखो,हरिवंशपुराण १.३० । ३ देखो, वेलूर ताल्लुकेका शिलालेख नं० १७ । ४ इन अन्योंके परिचयके लिये मुल्तार सा० का हवामीसमन्तभद्र' ग्रन्थ देग्नें । ५ देखो, 'नागार्जुन मौर स्वामीममन्तभद्र' तथा 'स्थामोसमन्तभद्र और दिग्नागमें पूर्णवर्ती कौम' शीर्षक दो मेरे निवन्ध 'अनेकान्त' वर्ष ७ किरण १-२ और वर्ष ५ कि० १२ । ६ देखो, न्यायकुमुद द्वि० भा० का प्रावकथन और प्रस्तावना ।।