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न्याय-पीपिका
मर्थात् ५वों और सातवीं शताब्दी बतलाते हैं । इस सन्बन्ध जो उनकी दलीलें हैं उनका युक्तिपूर्ण विचार अन्यत्र किया है। पर इस संक्षिप्त स्थानपर पुनः विचार करना शक्य नहीं है। न्यायदीपिकाकारले न्यायदीपिकामें अनेक जगह स्वामी समन्तभद्रका नामोल्लेख किया है और उनके प्रसिद्ध दो स्तोत्रों-देवागमस्तोष प्राप्तमीमांसा) और स्वयम्भूतोत्र. से अनेक कारिकानों को उद्धृत किया है।
भट्टाकलदेव ये 'जनन्यायके प्रस्थापक' के रूपमें स्मृत किये जाते हैं जैनपम्पराके सभी दिगम्बर भौर श्वेताम्बर साकिक इनके द्वारा प्रतिष्ठित 'न्यायमार्ग' पर ही चले हैं। मागे जाकर तो इनका यह 'न्यायमार्ग' 'भकलङ्कन्याय के नामसे प्रसिद्ध हो गया । तत्वार्थवातिक, प्रष्टशती, न्यायविनिश्चय, लघीयस्त्रय और प्रमाणसंग्रह प्रादि इनकी महत्वपूर्ण रचनाएं हैं । ये प्रायः सभी दार्शनिक कृतिर्श है और तत्त्वार्यवात्तिकभाष्यको छोड़कर सभी गूद्ध एवं दुरवगाह हैं । मनन्तवीर्यादि टीकाकारोंने इनके पदोंकी व्याख्या करनेमें अपनेको असमर्थ बतलाया है। वस्तुत: अकलङ्कदेवका वाङ्मय अपनी स्वाभाविक जटिलताके कारण विद्वानों के लिए बाज भी दुर्गम और दुर्बोध बना हुआ है। जबकि उन पर टीकाएं भी उपलब्ध हैं। जैन साहित्यमें ही नहीं, बल्कि भारतीय दर्शनसाहित्यमें प्रकलङ्कदेवकी सर्व कृतियाँ अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। इनकी कतिपय कृतिमोंका कुछ परिचय पहले करा पाये हैं । श्रीमान् पं. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने इनका अस्तित्वकाल अन्तःपरीक्षा प्रादि प्रमाणोंके प्राधारपर ईसाकी आठवीं शताब्दी ( ७२०से७८० ई.) निर्धारित किया है' ! न्यायदीपिकामें धर्मभूषणजीने कई जगह इनके नाम
१ देखो, 'क्या स्वामीसमम्तमा धर्मकोतिके उत्तरकालीन है?' नामक मेरा लेख, अंगसिद्धान्तभास्कर भा० ११ किरण १ । २ देखो, यकसमन्यत्रयको प्रस्तावना पृ० ३२ ।