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न्याय-दीपिका
'भट्टारक' जसे महनीय विशेषणों सहित इन नामा उल्लेख करके परीक्षामुखके सूत्रको उद्धृत किया है।
स्यानादविद्यापति- यह प्राचार्य वादिराजमुवी विशिष्ट उपाधि थी जो उनके स्यावादविद्याके अधिपतित्व –अगाध पाण्डित्यको प्रकट करती है। ग्राम वादिराज अपनी इस उपाधि इन ने अभिन्न एवं तदात्म जान पड़ते हैं कि उनकी इस उपाधिसे ही पाठक वादिराजसूरिको पान लेते हैं . ही गार है कि न्यायाची परवविधरके सन्धिवाक्योंम 'स्याद्वादविधापति' उपाधिके द्वारा ही वे अभिहित हुग है'। न्यायदीपिकाकारने भी न्यायदोका पृ० २४ और ७० पर इसा उपापिसे उनका उल्लेख किया है और पृ० २४ पर तो इगो नामके साथ एक वाक्यको भी उद्धृत किया है। मालूम होता है कि 'ज्यावनिश्चय' जैसे दुरुह तकंग्रंथपर अपना वृहत्काय विवरण लिम्बनेके उपलक्षम ही इन्हें गुरूजनो अथवा विद्वानों द्वारा उका गौरवपूर्ण स्यादविद्याके धनोप उच्च पदवी. से सम्मानित किया होगा । वादिराजमूरि केवल अपने समयके महान ताकिक ही नहीं थे, वल्यिा वे गन्न ग्रहद्भन पत्र प्राजाप्रघानी, वयाकरण और अद्वितीय उच्च कवि भी थे। गाजिनिश्चर्याववरण, पार्श्वनाथरिन, यशोधरनारत, प्रायनगंग पोर एकीभावस्तोत्र
आदि इनकी वृतियां है । इन्होंने अपना पयस्य नामि शकसम्बन ६४७ ११०२५ ई० में समान किया । ग्रन: । माकी ११वो मदीक पूर्वार्धके विद्वान हैं।
१ इगका एक नमुना इग प्रकार है-~-इन्यासागस्याद्वादविद्यापनि. विरचित न्यायविनिश्चयकारिकाविवरण प्रत्यक्षप्रस्ताव. प्रधम ।'--. लि. पत्र ३०६ ।
२ 'बादि गजमनु यानि कलाको बादि गजमनु नानिमिहः । वादिराजमनु कान्यकृतम्त वादिगजमन भव्य महायः ।।'
--एकोभावस्तोत्र २६॥