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प्रस्तावना
लिखी है । इनके पीछे १२ चौं शताब्दीके विद्वान् लघु प्रनन्तवीर्यने प्रसन्न रचनाशलीवाली 'प्रमेपरत्नमाला' टीका लिखी है । यह टीका है तो छोटी, पर इतनी विशद है कि पाठकको बिना करिनाईके सहज ही मर्थबोध हो बाता है। इसकी शब्दरचनासे हेमचन्द्राचार्य भी प्रभावित हुए हैं भोर उन्होंने अपनी प्रमाणमीमांसा : नथा .. उनका अनुहारमा किया है। न्यायदीपिकाकारने परीक्षामुखके अनेक मूत्रोंको नामनिर्देश पर बिना नामनिर्देशके उद्धृत किया है। वस्तुतः मा० वर्मभूषणने इस सूत्र• ग्रन्थका जूव ही उपयोग किया है । श्यापदीपिकाके आधारभूत अन्योंमें परीक्षामुखका नाम लिया जा सकता है ।
तरवार्यश्लोकवातिक और भाध्य-प्रा. उमास्वातिके तत्वाधमूत्रपर कुमारिलके 'मीमांसारलोकवात्तिक' और घमंकीतिके 'प्रमाणवात्तिक' की तरह पद्यात्मक विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्नोकवात्तिक रचा है और उसके पद्मवात्तिकोंपर उन्होंने स्वयं गद्य में भाष्य लिखा है जो तस्वार्थनाकवात्तिकभाष्य' और 'श्लोकवातिकभाष्य' इन नामोंसे कथित ता है। प्राचार्यप्रवर विद्यानन्दने इसमें अपनी दार्शनिक विद्याका पूरा ह। खजाना खोलकर रख दिया है और प्रत्येकको उसका प्रानन्दरसास्वाद लेने. के लिये निःस्वार्थ आमंत्रण दे रखा है इलोकवातिकके एक सिरेसे दूसरे सिरे तक चले जाइये, रावत्र तार्किकता और गहन विचारणा ममव्याप्त है। कहीं मीमांसादर्शनके नियोग भावनादिपर उनके सूक्ष्म एवं विशाल पाणिष्टत्यकी प्रखर किरणें अपना तीक्षण प्रकाश डाल रही हैं तो कहीं न्यायदर्शन. के निग्रहस्यानादिरूप प्रगाढ तमको निष्कासित कर रहीं हैं और कहीं । दर्शनकी हिममय चट्टानोंको पिपला पिघला कर दूर कर रही है । तरह श्लोकवात्तिकमें हमें विद्यानन्दके अनेकमुख पाहित्य और . प्रज्ञलाके दर्शन होते हैं । यही कारण है कि जनताकिकोंमें प्राचार्य i... नन्दका उन्नत स्थान है । लोकवात्तिक के अलावा विद्यानन्दमहोदय, ५२. सहस्री, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, प्राप्तपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा और