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न्याय-दीपिका
इसकी प्रपंकारिका मौर पृष्ठ ७० एक पूरी कारिका उद्धृत की है।
परीक्षामुस-यह प्राचार्य माणिक्यनन्दिवी असाधारण भौर पपूर्व कृति है । तथा जैनन्यायका प्रथम सूत्रग्रन्थ है। यद्यपि अफलादेव जनन्यायकी प्रस्थापना कर चुके थे और अनेक महत्वपूर्ण स्फुट प्रकरण भी लिख चुके थे। परंतु गौतमके न्यायमूत्र, दिग्नागके न्यायप्रवंश, न्यापमुख मादिकी तरह जैनन्यायको मुत्रनल कारमाला 'गायत्र' गण जनपरम्परामें अब तक नहीं बन पाया था। इस कमीको पुमिको सर्वप्रथम मा माणिक्यनन्दिने प्रस्तुत 'परीक्षामुख' लिम्बकर किया । माणिक्यनन्दिकी यह अकेली एक ही अमर रचना है ,जो भारतीय न्यायसूत्रग्रन्थों में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। यह प्रपूवं अन्य संस्कृत भाषामें निबद्ध है। छह परिम्दोंमें विभक्त है और इसकी सूत्रसंख्या सब मिलाकर २०७ है । सूत्र बड़े सरल, सरस तथा नपे तुले हैं। सायमें गम्भीर, तलस्पी पौर भगौरवको लिए हुए हैं। प्रादि और भन्तमें दो पद्य है । प्रकसंकदेवके द्वारा प्रस्थापित जनन्यायको इसमें बहुत ही सुन्दर हुंगसे ग्रथित किया गया है । लघु अनन्तवीर्यने तो इसे अकलंकक वचनरूप समुद्रको' मषकर निकाला गया 'यापियामृत-न्यायविद्याका अमृत बतलाया है। इस ग्रन्धरलका महत्व इमोसे क्यापित हो जाता है कि इसपर अनेक महत्वपूर्ण टीकाएं लिखी गई है। प्राः प्रमाचन्द्रने १२ हजार फ्लोकप्रमाण 'प्रमेयकमलमासंण्ड' नामकी विशालकाय टीका
१ प्रकलङ्कके वचनोंसे परीक्षामुख' का उद्धृत हुप्रा है, इसके लिए मेरा परीक्षामूलसूत्र और इसका उद्गम' शीर्षक लेख देखें । 'अनेकान्स' वर्ष ५ मिरण ३-४ पृ. ११६-१२८ ।
२ "मकसपषोऽम्भोयरुदने येन धीमता । न्यायविचामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्विने ।।"प्रमेयर० प्र०३।