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प्रस्तावना
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है। श्रीमाम् पं० नाथूरामजी प्रेमीके शब्दोंमें यह पहला जैन म्याकरम' है । इस ग्रंथकी जनपरम्परामें बहुत प्रतिष्ठा रही है। भट्टाकलदेव भादि अनेक बड़े बड़े प्राचार्योंने अपने ग्रन्थों में इसके सूत्रोंका बहुत उपयोग किया है । महाकवि वनजय ( नाममालाक कता तो इस अपश्चिम रत्न' (बेजोड़ रत्न) कहा है' । इस प्रन्थपर अनेक टोकाएं लिखी गई हैं। इस समय केवल निम्न चार टीकाएं उपलब्ध हैं :-अभयनन्दिकृत महावृत्ति, २ प्रभाचन्द्रकृत शम्दाम्भोजभास्कर, ३ प्रार्य श्रुतिौतिकृत पंचवस्तु प्रक्रिया मोर ४ पं. महाचन्द्रकृत लघुजनेन्द्र । इस ग्रंथ के कर्ता मा० पूज्यपादका समय ईसाकी पांचवी और विक्रमको छठी शताब्दी माना जाता है । जनेन्द्रध्याकरणके अतिरिक्त इनकी रची हुई–१ तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धि), २ समाधितन्य, ३ इष्टोपदेश, ४ और दशभक्ति (संस्कृत) ये कृतियां उपलब्ध हैं । सारसंग्रह, शब्दावतारन्यास, जैनेन्द्रन्यास और वैद्यकका कोई ग्रंथ ये अनुपलब्ध रचनाएं, है जिनके अन्यों, शिलालेखों प्रादिमें उल्लेख मिलते हैं । अभिनव धर्मभूषणने न्यायदीपिका पृ०११ पर इस ग्रंथके नामोल्लेखके बिना और पृ० १३ पर नामोल्लेख करके दो सूत्र उदृत किये हैं।
प्राप्तमीमांसाविवरण-ग्रंथकारने न्यायदीपिका पृ० ११५ पर इस का नामोल्लेख किया है और उसे श्रीमदाचार्यपादका बसलाकर उसमें कपिलादिकोंकी आप्ताभासताको विस्तारसे जाननेको प्रेरणा की है । यह माप्तमीमांसाविवरण प्राप्तमीमांसापर लिखीगई अकलङ्कदेवकी 'अष्टशतो' नामक विवृत्ति और प्राचार्य विद्यानन्दरचित प्राप्तमीमांसालंकृति-पष्ट.
२ इस. ग्रन्थ और ग्रन्यकारके विशेष परिचयके लिये 'चन साहित्य और इतिहासके देवनन्दि और उनका जनेन्द्रव्याकरण निबन्ध और सम घितन्त्रको प्रस्तावना देखें । ३ "प्रमाणामकलवस्य पूज्यपादस्य सक्षम। धनराजयकवे काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् । "-माममाला ।