________________
प्रस्तावना
७५
उल्लेख से महामाष्यके विषयमें कोई विशेष प्रकाश नहीं पड़ता। प्रथम तो यह, कि यह उल्लेख मुख्तारसा. के प्रदर्शित उल्लेखों के समसामयिक है, उसका शृङ्खलाबद्ध पूर्वाधार अभी प्राप्त नहीं है जो स्वामीसमन्सभा के समय सक पहुँचाये । दूसरे यह, कि अभयचन्द्रसूरि इस उल्लेखके विषयमें अभ्रान्त प्रतीत नहीं होते। कारण, वे प्रकलङ्कदेवकी लघीयस्त्र यगत जिस कारिकाके 'मन्यत्र' पदका 'स्वामीसमन्तभवाविसरि' शब्दका अध्याहार करके तत्वामहाभाष्य' व्याख्यान करते हैं वह सूक्ष्म समीक्षण करने पर अकलङ्कदेवको अभिप्रेत मालूम नहीं होता। बात यह है कि प्रकलङ्कदेव वहाँ 'अन्यत्र' पदके द्वारा कालादिलक्षणको जाननेके लिये अपने पूर्वरचित तरवार्थ राजवात्तिकभाष्यकी सूचना करते जान पड़ते हैं, जहां (रावपातक ४-४२) उन्होंने स्वयं कालादि पाटका विस्तारसे विचार किया है।
मद्यपि प्रक्रियासंग्रहमें भी अभयचन्द्र सूरि ने सामन्तभद्री महामाष्यका उल्लेख किया है और इस तरह उनके ये दो उल्लख हो जाते हैं। परन्तु इनका पूर्वाधार क्या है? सो कुछ भी मालूम नहीं होता। अत: प्राचीन साहित्य परसे इसका अनुसन्धान करने की अभी भी प्रावएकता बनी हुई है।
२. अबतक जितने भी शिलालेखों प्रादिका संग्रह किया गया है उनमें महाभाष्य या तत्वार्थमहाभाप्यका उल्लेखयाला कोई शिलालेखादि उपलब्ध नहीं है | जिससे इस ग्रंथके अस्तित्व विषयमें कुछ सहायता मिल सके । तत्त्वार्थसूत्रके तो शिलालेख मिलते भी हैं पर उसके महाभाष्यका कोई शिलालेख नहीं मिलता।
३.जनश्रुति-परम्परा जरूर ऐसी चली आ रही है कि स्वामी समन्तभदने तत्वार्थसूत्रपर 'गन्धरस्ति' नामका भाष्य लिखा है जिसे महाभाष्य और १ अभूदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी । सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुङ्गवेन ।।-शि. १०८ । श्रीमानुमास्वातिरयं यतीशस्तस्वार्थसूर्य प्रकटीचकार । यन्मुक्तिमार्गावरणोधतानां पायमध्यभवति प्रजानाम् ॥-शि०१०५(२५४)