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प्रस्तावना
मासके प्रसिद्ध, बिरुद्ध, व्यभिचारी और अकिचिस्कर ये चारभी भेद हो सकते हैं या प्राकञ्चित्कारको सामान्य और शेषको उसके भेद मानकर तीन हेत्वाभास भी कहे जा सकते हैं । अब जो हरी लिसणामक होनेपर भी अन्यश्वानुपपन्नत्वसे रहित हैं वे सब अकिञ्चित्कर हेत्वाभास है'। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि अकलङ्कदेवने पूर्व से प्रसिद्ध इस अकिंचितत्कर हेवाभासको कलाना कहांसे की है ? क्योंकि वह न तो कणाद और दिग्नाग कथित तीन हेन्याभासोंमें है और न गौतमस्वीकृत पांच हेत्वाभासोंमें है ? श्रद्धेय प. स्त्रलालजीका कहना है कि 'जयन्त. मट्टने अपनी न्यायमंजरी (पृ० १६३ ) मे अन्यथासिद्धापपर्याय अप्रयोजक नामक एक नए हेत्वाभासको माननेका पूर्व पक्ष किया है जो वस्तुतः जयन्तके पहिले कभीसे चला पाता हुअा जान पड़ता है । 'प्रतएव यह सम्भव है कि अप्रयोजक या अन्यथासिद्ध माननेवाले किसी पूर्ववर्ती तार्किक अन्यके प्राधारपर ही प्रकलङ्कने अकिंचिकर हेत्वाभासको अपने ढङ्गसे नई सृष्टि की हो।' निःसन्देह पण्डितजीकी सम्भावना और समाधान दोनों हृदयको लगते है । जयनाभट्टन' इस हेलाभासके सम्बन्धमें कुछ विस्तारसे बहुत मुम्बर विचार किया है । वे पहले तो उभे विचार करने करने
--- . ...- --.-. ..-- १ "अन्यथानुपपन्नत्वराहता ये विलक्षणाः ।
अकिरिका रकान् सर्वोस्तान् वयं सङ्गिगमहे ।।-ग्यावि० का० २७० । २ प्रमाणमो० भा० टि. पृ० १७ । ३ देखो, न्यायमं० पृ. १६३.१६६ (प्रभग प्रकरण) । ४ "प्रास्ता तहि पाट एकात्र हत्वाभाम: सम्पग हेनतां तावस्याफ्ननग्रेन नाश्नुने एच न च नवनर्भवतीति बलात् षष्ट एवावतिष्यते । कथं विभागमूसमिति चंद्, अतिक्रमिष्याम उन मूगम्, अनतिकामन्तः सुस्पष्टमपीममप्रयोजक हेत्वाभासमपह्नवीमहि न चैव युक्तमसो बरं मूत्रातिकमो न वस्त्वतिकम इति । xxx 'नदेनं हेस्वाभासमसिद्धवर्ग एव निक्षिपाम:" xxx अथवा सर्वहेत्वाभामानवृत्तमिव