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न्याय-दापिका
प्रवेशगत वर्णन और प्रशस्तपादभाष्यगत अनध्यवसितके वर्णनका पाशम प्रायः एक है और स्वयं जिसे प्रशस्तपादने' असाधारण कहकर मनध्यवसित हेत्वाभास अथवा विरुद्ध हेत्वाभासका एक भेद बतलाया है । कुछ भी हो, इतना अवश्य है कि प्रास्तपादने देशेषिकदर्शन सम्मत तीन हेत्वाभासोंके अलावा इस चौथे हेत्वाभासकी भी कल्पना की है । अज्ञात नामके हेत्वाभासको भी माननेका एक मन रहा है । हम पहले कह पाए हैं कि अर्चदने नैयायिक और मीमांसकों के नाम ज्ञातव्य सहित पहलक्षण हेतु का निर्देश किया है । सम्भन्न है जातत्त्वरूपके अभावमं अजाननामका हेत्वाभास भी उन्हों के द्वारा वहिप न हुआ हो। अकलदेव इस हत्याभासका उल्लेख करक असिद्धमे प्रस्ताव किया है। उनके अनुगामी माणिक्यनन्दि प्रादिन भी उसे प्रसिद्ध हेत्वाभासाम्पसे उदाहृत किया है।
जन विद्वान हतका केवल एकहीं अन्यथानुपपन्नत्व-अन्यथानुपपत्तिरूप मानते हैं । अत: यथार्थमें उनका हेत्वाभारा भी एक ही होना चाहिए । इस सम्बन्ध मुश्मन अकलङ्कदवने बड़ी योग्यतामे उन र दिया है । वे कहते हैं कि वस्तुतः हत्वाभास एक ही हैं और वह है अकिश्चित्कर अथवा प्रसिद्ध । विरुद्ध, प्रसिद्ध और सन्दिग्ध ये उसीक विस्तार है । चूंकि अन्यथानुपपत्तिका प्रभाव अनेक प्रकारसे होता है इसलिए हेत्वा
१ देखो, प्रशस्तफा० भा० ११८, ११६ 1
२ "साध्येऽपि कृतकत्वादिः अशातः साधनाभासः । तदसिद्धलक्षणेन अपरो हेत्वाभासः, सर्वत्र साध्यार्थासम्भवाभावनियमासिदः अर्धज्ञाननिवृत्तिलक्षणत्वात् ।"-प्रमाणसं० स्वो० का ४४ । ३ परीक्षामु. ६.२७,२८ । ४ "साधनं प्रकृताभावेऽनुपपन्न ततोऽपरे । विरुद्धासिद्धसन्दिग्धा प्रकिञ्चिस्फरविस्तराः ।"-न्यायवि. का. २६६ | "प्रसिद्धश्चाक्षुपत्वादिः मान्दानित्यत्वसाधने । अन्यथासम्भवाभावभेदारस बहुधा स्मृत: विरुवासिद्धसन्दिग्धरकिश्चित्करविस्तरैः–न्यायषि का० ३६५, ३६६ ।