________________
१६
न्याय-दीपिका बन्ध मि अधिार विमान बनदर्शगने लिया और भारतीयदर्शनशास्त्रको तत्सम्बन्धी विपुल साहित्यसे समृद्ध बनाया है उतना अम्य दूसरे दर्शनने शायद ही किया हो ।
पक्रलदेवने' सवंशत्वके साधनमें अनेक युक्तियोंके साथ एक युक्ति बड़े मावी कही है वह यह कि सर्वज्ञके सद्भावमें कोई बाधक प्रमाण नहीं है इसलिए उसका अस्तित्व होना ही चाहिए। उन्होंने जो भी वाधक हो सकते हैं उन सबका सुन्दर दृङ्गसे निराकरण भी किया है । एक दूसरी महत्वपूर्ण युक्ति उन्होंने यह दी है कि 'प्रान्मा 'ज्ञ'—ज्ञाता है और उसके शानस्वभावको ढकनेवाले प्रावरण दूर होते है । अतः आवरणोंके विच्छिन्न हो जानेपर ज्ञस्वभाव आत्माके लिए फिर ज्ञेय-जानने योग्य क्या रह जाता है ? अर्थात् कुछमी नहीं। अप्राप्यकारी ज्ञानसे सकन्नार्थपरिज्ञान होना अवश्यम्भावी है ? इन्द्रियाँ और मन मकलार्थपरिज्ञानमे मायक न होकर बाधक हैं ने जहाँ नहीं हैं और नाबरणाका पूर्णतः प्रभाव है वहाँ
कालिक और त्रिलोकवर्ती यावन् पदार्थों का साक्षात् ज्ञान होनमें कोई बाधा नहीं है। वीरसेनस्वामी' और प्राचार्य विद्यानन्दने' भी इसी आशयके एक महत्त्वपूर्ण श्लोकको उद्धृत करके ज्ञस्वभाव प्रात्मा सर्वज्ञताका उपपादन किया है जो वस्तुतः अकेला ही सर्वज्ञताको सिद्ध करनेमें समर्थ एवं पर्याप्त है। इस तरह हम देखते है कि जनपरम्पराम
१ देखो, अष्टा० का ३ । २ "ज्ञस्यावरणविच्छेदे त्रेयं किमवशिष्यते ।
अप्राप्यकारिणस्तस्मान् सर्वावलोकनम् ।।"-न्यावि. का. ४६५ । तथा देखो, का० ३६१, ३६२ । ३ देखो, जयपबला प्र० भा० पृ० ६६ । ४ देखो, अष्टस० पृ. ५० ।
५ 'शो शेये कथमज्ञः स्यादसत्ति प्रतिबन्धने । दाह्मऽग्निहको न स्यादसति प्रतिबन्धने ॥"