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प्रस्तावना
मीमांसक दर्शन' जहाँ केवल घमंजताका निषेध करता है और सर्वज्ञताके मानमें इष्टापत्ति प्रकट करता है वहाँ बौद्धदर्शनमें सर्वशताको अनुपयोगी बतलाकर धर्मज्ञता को प्रश्रय दिया गया है। यद्यपि मान्तरक्षित' प्रभृति बौद्ध ताकिकों ने सर्वज्ञताका भी साघन किया है। पर बह गौण है। मुख्यतया बौद्धदर्शन धर्मज्ञवादी ही प्रतीत होता है।
जैनदर्शनमें आगमग्रन्थों और तर्क ग्रन्थों में सर्वत्र धर्मज्ञ और सर्वज्ञ दोनोंका ही प्रारम्भसे प्रतिपादन एवं प्रबल समर्थन किया गया है। षट्खण्डागमसूत्रोंमें सर्वजत्व और धर्मज्ञत्वका स्पष्टतः समर्थन मिलता है। प्रा. कुन्दकुन्दने प्रवचनसारमें विस्तृतरूपसे सर्वज्ञताकी सिद्धि की है। उत्तरवर्ती समन्तभद्र, सिद्धसेन, असाल, हरिभा, विधामन्य प्रति जन तार्किकोंने धर्मज्ञत्वको सर्वज्ञत्वके भीतरही गभित करके सर्वगत्व पर महत्वपूर्ण प्रकरण लिखे हैं । समन्तभद्रकी प्राप्तमीमांसाको तो प्रकलङ्कदेवने' 'सर्वज्ञ विशेषपरीक्षा' कहा है। कुछ भी हो, सर्वशताके
१ "धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु केवलोऽश्रीपयुज्यते सर्वमन्यविज्ञानस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥"..-तस्व. का. ३१२८ । तत्त्वसंग्रहमें यह श्लोक कुमारिलके नामसे उद्धृत्त हुआ है। २ "तस्मादनुष्ठानगतं मानमस्प विचामताम् । कीटसंख्यापरिज्ञाने तस्य नः क्योपयुज्यते ।। हेयोपादेयतस्वस्य साम्पुपायस्य वेदक:.1 यः प्रमाणमसाविष्ठो न तु सर्वस्य वेदकः ॥"प्रमाणवा- २-३१, ३२ । ३ "स्वर्गापवर्गसम्प्राप्तिहेतुशास्तीति गम्यते । साक्षान्न केवलं किन्तु सर्वज्ञोऽपि प्रतीयते ।" सस्वसं० का ३३.६ । ४ "मुरुमं हि तावत् स्वर्गमोक्षसम्प्रापकहेतुजत्वसाघनं भगवतोऽस्माभिः क्रियते । यत्पुनः अशेषार्थपरिज्ञातृत्वसाधनमस्य तन् प्राणिकम् ।" तत्त्वसं० ५० पृ० ८३३ । ५ "सब्बलोए सव्वजीवे सव्वभागे सव्वं समं जाणदि पस्सदि..,"--खट्खं० पडिअणु० मू० ७८ । ६ देखो, प्रवचनसार, शातमीमीमामा । ७ देखो, अप्टा का. ११४ ।