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प्रस्तावना
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२०. हेतुका लक्षण
हेतुके लक्षणसम्बन्धमें दार्शनिकोंका भिन्न भिन्न मत है । वैशेषिक', सांख्य और बौद्ध' हेतुका रूप्य लक्षण मानते हैं। यद्यपि हेतुका विरूप लक्षण अधिकांशतः बौद्धोंका ही प्रसिद्ध है, वशेषिक और सांख्योंका नहीं । इसका कारण यह है कि रूप्यके विषयमें जितना सूक्ष्म और विस्तृत विचार बौद्ध विद्वानोंने किया है तथा हेतुबिन्दु जैसे तद्विषयक स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना की है। उतना वैशेषिक और सांख्य विद्वानोने न तो विचार ही किया है मौर न कोई उस विषयके स्वतन्त्र ग्रंथ ही लिखे हैं। पर हेतुके रूप्यको मान्यता वैशेषिक एवं सांस्योंकी भी है। और वह बोड़ोंकी अपेक्षा प्राचीन है। क्योंकि बौडोंकी घरूप्यकी मान्यता तो वसुबन्धु और मुख्यतया दिग्नागसे, ही प्रारम्भ हुई जान पड़ती है । किन्तु वैशेषिक और सांख्योंके रुप्यकी परम्परा बहुत पहलेसे चली प्रारही है । प्रशस्तपादने अपने प्रशस्तपादभाष्य (पृ. १०० में काश्यप पोर(कणाद! कथित दो पद्योंको उद्धृत किया है, जिनमें पक्षषमत्व, सपक्षसत्त्व भौर
१ देखो, प्रस्तावना पृ० ४५ का फुटनोट । २ सांख्यका० माठर वृ० ५। ३ "हेतुस्विरूपः । कि पुनस्त्ररूप्यम्? पक्षधर्मत्वम्, सपक्षे सत्यम, विपक्षे घासत्वमिति ,"-म्यापप्र० पृ० १। यही वजह है कि तर्कग्रन्थों में बौद्धाभिमत ही रूप्य का विस्तृत खण्डन पाया जाता है भौर 'त्रिलक्षणकदर्थन' जैसे ग्रन्थ रचे गये हैं। ५. ये दिग्नाग (४२५A.D.) के पूर्ववर्ती हैं और लगभग तीसरी चौथी शताब्दी इनका समय माना जाता है । ६ उद्योतकरने 'काश्यपीयम्' शब्दोंके साथ न्यायवात्तिक (पृ० ६६) में कणादका संशयलक्षणयाला 'सामान्य प्रत्यक्षान्' आदि मूत्र उद्धृत किया है । इससे मालूम होता है कि काश्यप कणादका ही नामान्तर या, बो क्शेषिकदर्शनका प्रणेता एवं प्रवर्तक है।