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न्याय-दीपिका
एवं स्वयं भ्रामक प्रवृत्ति करना ठीक नहीं है ।
२१ हेतु-भेद
दार्शनिक परम्परा में सर्वप्रथम कणादने हेतुके भेदोंको गिनाया है । उन्होंने देतुके पांच भेद प्रदर्शित किये हैं। किन्तु टीकाकार प्रशस्तपाद' उन्हें निदर्शन मात्र मानते हैं 'पांच ही हैं' ऐसा ग्रवधारण नहीं बतलाते । इससे यह प्रतीत होता है कि वैशेषिक दर्शनमें हेतुके पांचसे भी अधिक भेद स्वीकृत किये गये हैं। न्यायदर्शनके प्रवर्तक गौतमने और सांख्यकारिकाकार ईश्वरकृष्णने पूर्ववत् शेषवत् तथा सामान्यतोदृष्ट ये तीन भेद कहे हैं । मीमांसक हेतुके कितने भेद मानते हैं, यह मालूम नहीं हो सका । बौद्ध दर्शनमें* स्वभाव, कार्य और अनुपलब्धि ये तीन भेद हेतुके बतलाये हैं। तथा अनुपलब्धिके ग्यारह भेद किये हैं। इनमें प्रथमके दो हेतुको विधिसाधक और अन्तिम धनुपलब्धि हेतुको निषेधसाधक हो वर्णित किये हैं' ।
जैनदर्शनके उपलब्ध साहित्यमें हेतुओंके भेद सबसे पहले प्रकलदेव
१ "अस्वेदं कार्यं कारणं संयोगि विरोधि समवायि चेति लैङ्गिकम् ।" - वैशेषि० सू० ६-२-१ । २ "शास्त्रे कार्यादिग्रहणं निदर्शनार्थं कृत नावधारणार्थम् । कस्मात् ? व्यतिरेकदर्शनात् । तद्यथा प्रध्वर्यु रोधावयन् व्यवहितस्य हेतुलिङ्गम् चन्द्रोदयः समुदवृद्धेः कुमुदविकाशस्य च जलप्रसादोगस्त्योदयस्येति । एवमादि तत्सर्वमस्येदमिति सम्बन्धमात्रवचनात् सिद्धम् । " - प्रशस्तपा० पृ० १०४ ३ "अथ तत्पूर्वकं विविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टं च 1" न्यायसू० १-१-५ । ४ " त्रीष्येव लिङ्गानि" "अनुपलब्धिः स्वभावकार्ये त्रेति । न्यायवि० पृ० ३५ ॥ ५ “सा च प्रयोगभेदावेकादशप्रकारा । " - न्यायवि० पृ० ४७, ६ अत्र at वस्तुसाधनी " " एकः प्रतिषेधहेतुः "म्यश्ववि० पृ० ३६ ।