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न्याय-टीपिका
वह इतनी सुनिश्चित और वस्तुस्पर्शी है कि शब्द को तोड़ मरोड़े बिना हो सहजमें आधिक बोध हो जाता है । परोक्षकी जनदर्शनसम्मत परिभाषा विलक्षण इसलिए मालूम होगी कि लोकमें इन्द्रियव्यापार रहित भानको परोक्ष कहा गया है। जबकि जनदर्शन में इन्द्रियादि परकी अपेक्षासे होने वाले ज्ञानको परोक्ष कहा है। वास्तवमै 'परोक्ष' शब्दसे भी यही प्रथं ध्वनित होता है । इस परिभाषाको ही केन्द्र बनाकर प्रकलदेवने परोक्ष को एक दूसरी परिभाषा रची है। उन्होंने अविशद ज्ञानको परोम कहा है' । जान पड़ता है कि अकलङ्कदेवका यह प्रयत्न सिद्धान्त मनका लोकके साय समन्वय करनेकी दृष्टिसे हुअा है। बादमें तो अकलकदेवकृत यह परोक्ष-लक्षण जनपरम्परामें इतना प्रतिष्ठित हुमा है कि उत्तरवर्ती समी जैन तार्किकोंने उसे अपनाया है। यद्यपि सबकी दृष्टि परोक्षको परापेक्ष मानने की हो रही है।
प्रा. कुन्दकुन्दने परोक्षका लक्षण तो कर दिया था, परन्तु उसके भेदोंका कोई निर्देश नहीं किया था। उनके पश्चाद्वर्ती ग्रा० उमास्वातिने परोक्षके भेदोंको भी स्पष्टतया सूचित कर दिया और मतिज्ञान तथा अतशान ये दो भेद बतलाये । मतिज्ञानके भी मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता पौर अभिनिबोध ये पर्याय नाम कहे। कि मति मतिज्ञान सामान्यरूप है । अतः मतिज्ञानके चार भेद हैं। इनमें श्रुतको और मिला देनेपर परोसके फलतः उन्होंने पांचभी भेद सूचित कर दिए और पूज्यपादने उपमानादिक के प्रमाणान्तरत्वका निराकरण करते हुए उन्हें परोक्षमें ही अन्तर्भाव हो जानेका संकेत कर दिया। लेकिन परोक्षके पांच भेदोंकी सिलसिलेवार
१ देखो, सर्वार्षसि० १-१२ । २ सर्वार्थसि० १-११३ ३ "मानस्येव विशदनिर्मासिनः प्रत्यक्षस्वम्, इतरस्य परोक्षता ।"-लघीय स्वो० का० ३ | ४ परीक्षामु० २-१, प्रमानपरो• पृ० ६६ । ५ प्रबचनसा० १-५८ ।