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प्रस्तावना
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उत्पत्ति कारण होता है इसलिए वह समनन्तर प्रत्यय कहलाता है । चक्षुरादिक इन्द्रियां श्राधिपत्यप्रत्यय कही जाती हैं। अर्थ (विषय) आलम्बन प्रत्यय कहा जाता है और आलोक यादि सहकारि प्रत्यय हैं । इस तरह बौद्धोंने इन्द्रियों के अलावा अर्थ और आलोकको भी कारण स्वीकार किया है । अर्थको कारणता पर तो यहाँ तक जोर दिया है कि ज्ञान यदि असे उत्पन्न न हो तो वह अर्थको विषयभी नही कर सकता है' । यद्यपि नैयायिक आदिने भी अर्थको ज्ञानका कारण माना है पर उन्होंने उतना जोर नहीं दिया। इसका कारण यह है कि न्यायिक प्रादि ज्ञान के प्रति सीधा कारण सन्निकर्षको मानते हैं। प्रयं तो सन्नि कर्ष द्वारा कारण होता है । अतएव जैन ताकिकोने नैयायिक आदिके अर्थकारणतावाद पर उतना विचार नहीं किया जितना कि वौद्धोंके अलोककारणतावाद पर किया है। एक बात और है, बौद्धोंने अर्थजन्यत्व अर्थाकारता और अर्याध्यवसाय इन तीनको ज्ञानप्रामाण्यके प्रति प्रयोजक बतलाया है और प्रतिकर्मव्यवस्था भी ज्ञानके प्रर्थजन्य होने में ही की है । यतः प्रावरणक्षयोपशम को ही प्रत्येक ज्ञानके प्रति कारण मानने वाले जैनोंके लिए यह उचित और आवश्यक था कि व बौद्धोंके इस मन्तव्य पर पूर्ण विचार करे और उनके प्रलोककारणत्वपर सबलताके साथ चर्चा चलाएं तथा जनदृष्टिसे विषय - विषय के प्रतिनियमनकी व्यवस्थाका प्रयोजक कारण स्थिर करें। कहा जा सकता है कि इस सम्बन्धमें सर्वप्रथम सूक्ष्म दृष्टि कल देवने अपनी सफल लेखनी चलाई है और अलोककारणता सयुक्तिक निरसन किया है। तथा त्वाबरण क्षयोपशमको विषय-विपीका प्रतिनियामक बता कर ज्ञानप्रामाण्य का प्रयोजक संवाद ( अर्थाव्यभिचार) को बताया है। उन्होंने
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१ "नाकरणं विषयः" इति वचनात् ।