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न्याय-दीपिका
संक्षेपमें कह दिया कि 'ज्ञान अर्थसे उत्पन्न नहीं होता ; क्योंकि जान तो _ 'यह अर्थ है नही जानता है अर्थने में उत्पन्न हुा' इस बातको वह नहीं जानता । यदि जानला होता तो किसीको विवाद नहीं होना चाहिए था। जैसे घट और कुम्हारको कार्यकारणभावमें किमीका विवाद नहीं है। दूसरी बात यह है कि अर्थ तो विषय (जेय) है वह कारण कैसे हो सकता है ? कारण तो इन्द्रिय और मन हैं | तीसरे, अर्थके रहने पर भी विपरीत ज्ञान देखा जाता है और अर्थाभावमे भी केशोप्डुकादि ज्ञान हो जाता है । इसी प्रकार प्रालोकभी जानके प्रति कारण नहीं है, क्योंकि प्रालोकाभावमें उल्लू अादिको ज्ञान होता है और पालोकसद्भावम संशयादि ज्ञान देखे जाते है । अतः अर्थादिक ज्ञानके कारण नहीं हैं। किन्तु प्रावरणक्षयोपशमापेक्ष इन्द्रिय और मन ही ज्ञानके कारण है । इसके साथ ही उन्होंने अर्थजन्यत्व आदिको ज्ञानको प्रमाणतामें अप्रयोजक बतलाते हुए कहा है कि 'नदुत्पत्ति, तादृप्य और १ "अयमथं इति ज्ञानं विद्याश्नोत्पत्तिमर्यतः ।।
अन्यथा न विवाद: स्यात् कुलालादिघटादिवत् ।।"-लघी० ५३ । "अर्थस्य तदकारणरवात् । तस्य इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तत्वात् पर्थस्य विषयत्वात् ।"--- लघी० स्वो० का० ५२ ।
"यबास्वं कर्मक्षयोपशमापेक्षिणी करणमनसी निमित्त विज्ञानस्य न बहिरादयः । नान नुढातान्वयव्यतिरेक कारणं नाकारणं विषयः' इति बालिशगीतम् तामसखगकुलानां तमसि सति रूपदर्शनमावरणविनोदात्, तविच्छेदान् पालोके सत्यपि संगयादिज्ञानसम्भवात् । काचाअपहतेन्द्रियाण! यांखादी पोताद्याकारज्ञानोत्पत्तेः मुमूर्याणां यथासम्भवमर्थे सत्यपि विपरीतप्रतिपत्तिसद्भावात् नार्थादयः कारण ज्ञानम्येति ।"-समी ५७ । १ "न तज्जन्म न ताद्रप्यं न तह च वमितिः सह ।
प्रत्येक बा भजन्तीह प्रामाण्यं प्रति हेतुनाम् ।। नार्थ: कारणं विज्ञानस्य कार्यकालमप्राप्य निवृत्तेः अतीततमक्त : न ज्ञान