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नयचक्र
प्राप्त हुआ। दूसरे पाठ में कहा है कि देवसेन ने पुनः नयचक्र रचा। गाथा के पूर्वार्ध में दुसमीर से प्रेरित पोत
उपमा दी है। और उस पर से यह अभिप्राय लिया जाता है कि नयचक्र नष्ट हो गया था, उसका पुनरुद्धार देवसेन ने किया। किन्तु देवसेन ने अपने नयचक्र में ऐसी कोई बात नहीं कही है। तब माइल्लधवल ने किस आधार से ऐसा कहा, यह ज्ञात नहीं होता।।
कुछ प्रतियों में 'माहिल्लदेवेण' पाठ भी मिलता है। और एक प्रति में उस पर 'देवसेनशिष्येण' ऐसी टिप्पणी है। अतः देवसेन माइल्लधवल के गुरु हैं और यदि अन्तिम गाथा का उत्तरार्ध-'तेसिं पाय पसाए उवलद्धं समग्गतच्चेण' ठीक है, तो देवसेन के साक्षात् शिष्य हो सकते हैं। किन्तु ऐसी स्थिति में 'दर्शनसार' के कर्ता देवसेन 'नयचक्र' के कर्ता नहीं हो सकते, क्योंकि 'दर्शनसार' वि.सं. ९६० में रचा गया है और माइल्लधवल, ‘पद्मनन्दि पंचविंशतिका' के कर्ता के बाद के हैं। दोनों के मध्य में लगभग दो शताब्दी का अन्तराल है।
अतः देवसेन के नाम से रचित ग्रन्थों की आन्तरिक छानबीन के आधार पर यह खोज आवश्यक है कि उनके कर्ता भिन्न-भिन्न हैं या एक हैं। हमें तो सब एक ही देवसेन की कृति प्रतीत नहीं होती हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ का परिचय
यह हम देख चुके हैं कि माइल्लधवल ने दोहाबद्ध 'द्रव्यस्वभाव प्रकाश' को गाथाबद्ध किया है तथा देवसेन के 'नयचक्र' को आत्मसात् किया है। दोहाबद्ध 'द्रव्यस्वभाव प्रकाश' उपलब्ध नहीं है। अतः नहीं कह सकते कि प्रस्तुत ग्रन्थ पूर्ण रूप से उसका ऋणी है या आंशिक रूप में, देवसेन का 'नयचक्र' हमारे सामने है। उसकी ८७ गाथाओं में से आधे से अधिक गाथाएँ ज्यों की त्यों इस ग्रन्थ में सम्मिलित कर ली गयी हैं। मंगलगाथा को भी नहीं छोड़ा है।
फिर भी ग्रन्थ में आगत कुछ विषय ऐसे अवश्य होने चाहिए जो ग्रन्थकार की देन कहे जा सकते हैं। क्योंकि उसने ग्रन्थ के आद्य उत्थान वाक्य में यह घोषणा की है कि कुन्दकुन्दाचार्य कृत शास्त्रों से सारभूत अर्थ को लेकर इस ग्रन्थ की रचना करूँगा।
ऐसा प्रतीत होता है कि कुन्दकुन्द के ग्रन्थों पर जब आचार्य अमृतचन्द्र की टीकाओं ने अध्यात्म की त्रिवेणी प्रवाहित कर दी, तो उसमें अवगाहन करके अपना और दूसरों का ताप मिटाने के लिए अनेक ग्रन्थकार उत्सुक हो उठे। आचार्य कुन्दकुन्द के अध्यात्म ने आचार्य पूज्यपाद का ध्यान आकृष्ट किया था और उन्होंने 'समाधितन्त्र' और 'इष्टोपदेश' जैसे सुन्दर मनोहारी प्रकरण ग्रन्थ रचे थे। किन्तु उस समय से भारत के दार्शनिक क्षेत्र में होनेवाली उथल-पुथल ने जैन दार्शनिकों का भी ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लिया था। फलतः जैन दर्शन के बड़े-बड़े ग्रन्थ रचे गये। गुप्त राजाओं का काल भारतीय दर्शनों की भी समृद्धि का काल था। इस काल में सभी क्षेत्रों में प्रख्यात दार्शनिक हुए और उन्होंने अपनी अमूल्य रचनाओं से भारतीय साहित्य के भण्डार को समृद्ध किया।
दसवीं शती में अमृतचन्द्र की टीकाओं की रचना होने पर रामसेन ने तत्त्वानुशासन, नेमिचन्द्र ने द्रव्यसंग्रह, अमितगति प्रथम ने योगसारप्राभृत, ब्रह्मदेव ने द्रव्यसंग्रह और परमात्मप्रकाश की टीका, जयसेन और पद्मप्रभमलधारीदेव ने अपनी टीकाएँ तथा पद्मनन्दि ने 'पद्मनन्दि पंचविंशति' की रचना की। इसके पश्चात् ही माइल्लधवल ने भी प्रस्तुत ग्रन्थ रचा और उसमें नयों के विवेचन के साथ अध्यात्म का भी विवेचन किया।
उन्होंने अपने द्रव्यस्वभावप्रकाशक को बारह अधिकारों में विभक्त किया है-१. गुण, २. पर्याय, ३. द्रव्य, ४. पंचास्तिकाय, ५. साततत्त्व, ६. नौ पदार्थ, ७. प्रमाण, ८. नय, ६. निक्षेप, १०. सम्यग्दर्शन, ११. सम्यग्ज्ञान,
और १२ सम्यक्चारित्र। इन बारह अधिकारों में प्रायः सभी उन आवश्यक विषयों का समावेश हो जाता है, जिनका ज्ञान आवश्यक है। गुण, पर्याय, द्रव्य तथा प्रमाणनय की चर्चा में देवसेन के द्वारा आलापपद्धति में चर्चित सब विषय आ जाते हैं और पाठक को द्रव्य के स्वरूप के साथ गुण, पर्याय और स्वभावों का सम्यग्ज्ञान हो जाता है। इसी तरह नय की चर्चा में द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक नयों के आगमिक तथा अध्यात्मपरक भेद-प्रभेदों का ज्ञान हो जाता है। साथ ही एकान्तवाद में दोष बतलाकर अनेकान्तवाद की स्थापना भी की गयी है। यह सब मुख्य प्रतिपाद्य विषय होने से ग्रन्थ का लगभग तीन चौथाई भाग रोकता है। शेष भाग में सम्यग्दर्शन,
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