Book Title: Nandanvan Kalpataru 2006 00 SrNo 16
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

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Page 16
________________ - कर्तुं तवाऽल्पमपि गानमहं न शक्त स्त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् । * चन्द्रोपलः शरदि पूर्णशशाङ्योगात्, शुष्कोऽप्यहो सवति किं न सुधास्रवन्तीम् ॥१२॥ सम्माय॑ भूमिमभिषिच्य जलेन पुष्पैराच्छाद्य मुग्धहृदयेन युगेन बन्धोः । सम्यक् प्रणम्य जिन ! पादयुगं युगादा वादीश ! ते स्तवनतः समवाप्तमिष्टम् ॥१३॥ * काले कलावतिमदोन्मदिते स्वकीयर श्लाघावचःश्रवणलालसया विलोले । * स्तोत्रैर्जगत्रितयचित्तहरैरुदारै- स्त्वां संस्तुवन्ति भुवनोत्तम ! भूरिभाग्याः ॥१४॥ मीनादिलक्षणसुलक्षितमङ्घियुग्मं, ये संश्रयन्ति तव तेऽनय ! हेलयैव । कल्पान्तकालपवनोद्धतनक्र चक्रं, संक्षुब्धसिन्धुसदृशं भवमुत्तरन्ति ॥१५॥ * दृष्ट्वाऽखिलत्रिभुवनेऽतुलितं स्वपं, देव ! त्वदीयमतिमुग्धमनोनिवेशः । प्रीत्याऽऽत्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्र* तुल्यस्य ते चरणसेवनमाचरामि ॥१६॥ त्वामेव वीक्ष्य विबुधा मुदमावहन्ते, भक्तांस्तु मोदयति बिम्बमपि प्रभो ! ते । बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्ब, संवीक्ष्य को हृदि प्रमोदभरं बिभर्ति ? ॥१७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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