Book Title: Nandanvan Kalpataru 2006 00 SrNo 16
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
Jain Education International
हे हंसवाहिनि सरस्वति वेदगर्भे !
शुभ्राङ्गि पङ्कजकरे ! कमलाननाऽसि ।
वीणाकराऽसि रचनाकरि ! वेदगम्ये !
हे देवि ! वेदकर ! वेदपरे ! नमस्ते ॥५॥
यस्याः करे लसति गायनतन्त्रवीणा, भाषादिपुस्तक मिह स्फटिकाक्षमाला । हंसेन याति परितो भ्रमतीह विश्वं,
आचार्यवर्यक विरामकिशोरमिश्रः,
तां शारदां वचनदां प्रणमामि देवीम् ॥ ६ ॥
त्वं ज्ञानदाऽसि जडलोक विवेक दाऽसि, बोधप्रदाऽसि फलदाऽसि सुखप्रदाऽसि । आङ्ग्लादिभाषितविभिन्नगिरासवित्र
त्वां देवि ! संस्कृतगिरा सततं नमामि ॥ ७ ॥
द्वन्दनं व्यरचयत्विह शारदाया: ।
तत्पाठकाय भुवि या प्रददाति बोधं,
तां शारदां वचनदां प्रणमामि देवीम् ॥८॥
२६
For Private Personal Use Only
२९५/१४, पट्टीरामपुरम्, खेकड़ा - २०११०१ (बागपत) उ. प्र.
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114