Book Title: Nandanvan Kalpataru 2006 00 SrNo 16
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

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Page 48
________________ Jain Education International रागामयप्रशमने वरवैद्यरूपो द्वेषानलप्रशमने जलधिस्वरूपः । संवेगसिद्धिकर एष भवेदचिन्त्य - चिन्तामणिः सकलजन्तुसुखावहत्वात् ॥४८॥ एवं परार्थवरसाधक एष बाढ नैकेषु जन्मसु कृतप्रतिसेवनातः । संक्षीयमाणकलुषो विकसच्छुभांशः प्राप्नोति जन्म चरमं चरमाप्तिहेतु ॥ ४९ ॥ तस्मिन् भवे त्वविकलस्वपरार्थहेतौ संपाद्य सर्वकरणीयमपास्तकर्मा । सिद्धिं विमुक्तिमथ निर्वृतिमेष याति निःशेषदुःखनिचयस्य करोति चाऽन्तम् ॥५०॥ जैनमन्दिरम् नानीखाखरग्रामः । ३५ For Private & Personal Use Only कच्छ- गुजरातराज्यम् पीन कोड: ३७०४३५ सैव भूमिस्तदेवाऽम्भः पश्य पात्रविशेषतः । आम्रो मधुरतामेति तिक्ततां निम्बपादपः । (याज्ञवल्क्यस्मृति-पूर्वभागः) www.jainelibrary.org

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