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प्रात्मा/जीवन की अनित्यता का विचार हमें संसार से विरक्त बनाता है।
मरण का स्मरण पौद्गलिक भाव के विस्मरण के लिए है।
इस अमूल्य जीवन में बाह्य-भौतिक पदार्थों के प्रति आसक्ति न रह जाय, इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर पूर्वाचार्यों ने नियमित रूप से अनित्य आदि भावनाओं से प्रात्मा को भावित करने का उपदेश दिया है।
अनित्य भावना के अन्तर्गत जीवन और पदार्थ की क्षरणभंगुरता का विचार किया जाता है परन्तु उस भावना का एक मात्र उद्देश्य वैराग्य को पुष्ट करना ही है।
- अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व और अशुचि भावनाएँ वैराग्य की पुष्टि के लिए ही हैं। ये भावनाएँ निराशावादी बनने के लिए नहीं हैं।
महोपाध्याय श्रीमद् विनयविजयजी म. ने 'शांत-सुधारस' ग्रन्थ के अन्तर्गत अनित्य प्रादि भावनात्रों में जीवन की अनित्यतादि के वर्णन के साथ-साथ उत्साहवर्धक प्रात्मा की अमरता का भी वर्णन किया है।
प्रिय दीपक ! तुमने 'शांत-सुधारस' ग्रन्थ तो कण्ठस्थ किया ही होगा ? जगत् के यथार्थ-स्वरूप का वर्णन करने वाला यह अनमोल ग्रन्थ है। विविध रागों में इन गीतों को गाया जा सकता है। एकान्त-शान्त-प्रशान्त वातावरण में धीरे-धीरे इन गीतों को गाया जाय तो हम आत्मा की मस्ती का अनुभव कर सकते हैं। आत्मा की सुषुप्त चेतना की जागृति के लिए यह ग्रन्थ प्रेरणा
मृत्यु की मंगल यात्रा-6