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मोहाधीन प्रात्मा देह में ही प्रात्मबुद्धि करके सदैव उसके पालनपोषण और रक्षण के लिए उद्यत होती है ।
संसार में आत्मा सदेही अवस्था में रहती है...अतः जिस भव में जो देह मिला, उस पर हमने राग किया। चींटी के भव में चोंटो के देह पर राग किया""तो हाथी के भव में हाथी के देह पर राग किया।
स्व-देह के तीव्र राग और आसक्ति के कारण उस देह के रक्षण आदि के लिए सभी प्रकार के पापाचरण किए। हिंसा भी की..."और झठ भी बोले..."चोरी भी की... क्रोध भी किया और मान भी किया। ऐसा कोई पाप नहीं है जो पाप बहिरात्म दशा में देह के रक्षण आदि के लिए नहीं किया हो।
जब आत्मा पर से मोह का साम्राज्य दूर होता है और आत्म-स्वरूप की पहिचान होती है, तभी देह से भिन्न, आत्मा में आत्मबुद्धि पैदा होती है।
आत्मा में आत्मबुद्धि होने पर आत्मा अन्तरात्म-दशा को प्राप्त करती है। अन्तरात्म-दशा की प्राप्ति होने पर देहभिन्न प्रात्मा का बोध होता है।
'यस्यात्मन्यात्मनिश्चयः सोऽन्तरात्मा मतः'
जिसे प्रात्मा में आत्मा का निश्चय हो गया है, उसे अन्तरात्मा कहते हैं।
परमात्म-दशा की प्राप्ति के लिए बहिरात्म-दशा का त्याग और अन्तरात्म-दशा को स्वीकृति अत्यन्त अनिवार्य है।
मृत्यु की मंगल यात्रा-52