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सचमुच, इस मनुष्य-जीवन की सफलता तो प्रात्मसाधना के लिए सुयोग्य पुरुषार्थ करने में ही है ।
आत्मसाधना के कल्याणकारी पथ की उपेक्षा करके जो क्षणिक सांसारिक सुखों में प्रासक्त बनता है, वह व्यक्ति स्वर्ण के थाल में धूल डाल रहा है, अमृत से पाद-प्रक्षालन कर रहा है और कोए को उड़ाने के लिए चिन्तामणि रत्न फेंक रहा है। वह व्यक्ति अपने भवन के कल्पवृक्ष को उखाड़ कर वहाँ धतूरे के बीज बो रहा है। चिन्तामणि के बदले काँच का टुकड़ा खरीद रहा है और महाकाय हाथी को बेच कर गधा खरीद रहा है ।
दुर्लभता से प्राप्त मनुष्य-जीवन को जो भोग-सुखों में व्यर्थ गँवा देता है, वह व्यक्ति समुद्र तैरने के लिए नाव को छोड़कर पत्थर ग्रहण करने वाले की तरह महामूर्ख ही है ।
अंजलि में रहा जल कब तक रह सकता है ? वह प्रतिसमय झरता ही रहता है। इसी प्रकार आयुष्य रूपी जल भी प्रतिसमय कम होता जा रहा है।
। परन्तु अफसोस ! मोहान्ध व्यक्ति इस यथार्थ सत्य के दर्शन नहीं कर पाता है और वह अपने जीवन के अमूल्य क्षणों को व्यर्थ गँवा देता है। बचपन खाने-पीने में, यौवन भोग-सुख में और वृद्धावस्था चिन्ता व शोक में गँवाने वाला व्यक्ति प्रात्मसाधना कब कर सकता है ?
आत्मजागृति के लिए योगिराज आनन्दघनजी का यह प्रेरक पद याद करने योग्य है
मृत्यु की मंगल यात्रा-77