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से आत्मा का संसार-चक्र चलता ही रहता है, प्रात्मा के संसारचक्र को तोड़ने के लिए दुःख में समत्व भाव धारण करना अनिवार्य है। दुःख में समता धारण करने से पुनः नए कर्म का बंध नहीं होता है।
__-(५) शारीरिक अस्वस्थता में अपने से अधिक रोगी व दुःखी के दुःख का विचार करो। 'अहो ! मुझे तो एक ही दिन बुखार आया है।' वह व्यक्ति तो १५ दिन से बुखार से हैरान हो रहा है। मुझे तो सामान्य चोट लगी है, उस बेचारे का तो हाथ ही कट गया है। मुझे तो सामान्य सिरदर्द है, उसके तो सिर की नस ही फट गई है। इस प्रकार अपने से अधिक दुःखी के दुःख का विचार करने से दुःख में राहत का अनुभव होगा।
(६) अपने किए गए पाप का फल अपने को ही भोगना पड़ता है, इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है।
(७) असाता पाप के उदय को हँसते-हँसते सहन करो या रोते-रोते, सहन तो करना ही पड़ेगा। जब सहना ही है तो हँसतेहँसते क्यों न सहन करें ?
(८) अपने मन को समाधि-भाव में स्थिर करने के लिए भूतकाल में हुए महान् पुरुषों के चरित्र व प्रसंगों को नजर समक्ष लाना चाहिये और उनके समत्व-भाव की अनुमोदना करनी चाहिये।
१. धन्य है धन मुनि को! पत्नी स्वयं चारों ओर आग लगा रही है, फिर भी उनके दिल में लेश भी रोष नहीं। कितनी समतापूर्वक मरणान्तक उपसर्ग को सहन कर रहे हैं वे ?
मृत्यु की मंगल यात्रा-137