Book Title: Mrutyu Ki Mangal Yatra
Author(s): Ratnasenvijay
Publisher: Swadhyay Sangh

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Page 167
________________ एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। किंतु कोई भी व्यक्ति उस प्याले को पीने के लिए तैयार नहीं हुआ। ___आखिर संत ने कहा, 'अच्छा, यदि कोई भी तैयार नहीं होता तो यह प्याला मैं पी जाता हूँ।' संत की यह बात सुनते ही सभी खुश हो गए। तत्क्षण संत ने वह प्याला पी लिया। उसी समय श्रेष्ठि-पुत्र भी शय्या पर से खड़ा हो गया और संत के साथसाथ चलने लगा। पुत्र को संत के पीछे जाते देख सभी उसका हाथ पकड़ कर कहने लगे, 'बेटा ! तू कहाँ जाता है ? तेरे बिना हम कैसे जीवित रहेंगे?' युवान ने कहा, 'मैंने आपका स्नेह पहिचान लिया है, आपका प्रेम स्वार्थ से भरा हुआ है, अब मैं निःस्वार्थ प्रेम करने वाले संत के साथ जाऊँगा'-इतना कहकर वह युवान संत के साथ चल पड़ा। मुमुक्षु 'दीपक' ! संसार के संबन्धी मोहवश होकर यही बात करते हैं कि 'तेरे बिना हम कैसे रहेंगे ?' परन्तु याद रखना, मृत्यु के समय उनमें से कोई साथ चलने वाला नहीं है। जीवन का सच्चा साथी जिनधर्म ही है। वही परलोक में साथ देने वाला है, जिसने जिनधर्म को स्वीकार किया है, उसे मृत्यु का कोई भय नहीं रहता है। उसके लिए तो मृत्यु भी एक महोत्सव बन जाता है । मृत्यु को महोत्सव बनाना है न! तो इस अमूल्य जीवन में जिनधर्म की सम्यग् साधना को अपना लक्ष्य बनाओ, उसी में आत्म-हित है। -रत्नसेनविजय मृत्यु की मंगल यात्रा-148

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