Book Title: Mrutyu Ki Mangal Yatra
Author(s): Ratnasenvijay
Publisher: Swadhyay Sangh

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Page 159
________________ संसार के स्वजन वास्तव में स्वजन कहाँ हैं ? याद आ जाती हैं कवि की ये पंक्तियाँ धन दोलत ज्यां ने त्यां रहशे , नारी प्रांगणियेथी वलशे , मसारणसुधी बांधव भलशे , काया राख बनी ने ढलशे , वियोग सौ व्हालाना पडशे , छटशे ज्यारे प्राण............। 'मुझे तो तू प्राण से भी प्यारा है' इस प्रकार की डींग हाँकने वाले मृत्यु के समय कोई साथ नहीं चलते हैं। अतः संसार के सम्बन्धियों में तीव-राग या आसक्ति नहीं करनी चाहिये । मुमुक्षु 'दीपक' ! तुम जानते ही हो कि संसार के सम्बन्धी देह के सम्बन्धी हैं, जब तक इस देह का अस्तित्व है तभी तक वे सम्बन्ध जीवित रहते हैं, देह के नाश के साथ ही वे सब सम्बन्ध नष्ट हो जाते हैं । इसीलिए तो ज्ञानी महापुरुषों ने अपने स्वरूप की सतत जागृति कराने के लिए 'संथारा पोरिसी' में याद कराया है एगोऽहं, नस्थि मे कोइ , नाहमन्नस्स कस्सइ। एवं प्रदीरणमरणसा, अप्पारणमणुसासइ । अर्थ-मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, मैं किसी का नहीं हँ, इस प्रकार अदीन मन से आत्मा का अनुशासन करना चाहिये। मृत्यु की मंगल यात्रा-140

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