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हैं। समय के प्रवाह के साथ सुख-दुःख की अवस्थाएँ बदलती रहती हैं। यह भी बीत जाएगा' को याद कर सुख में आसक्त नहीं बनना चाहिये और दुःख में दीन नहीं बनना चाहिये।
शारीरिक स्वास्थ्य कर्माधीन है। असाता वेदनीय कर्म का तीव्र उदय हो तो व्यक्ति अत्यन्त सावधानी रखते हुए भी रोग का शिकार बन जाता है, परन्तु चित्त का स्वास्थ्य/चित्त की प्रसन्नता अपने हाथ की बात है।
शारीरिक अस्वस्थता में मानसिक स्वास्थ्य को टिकाने के लिए इस प्रकार विचार करना चाहिए
(१) यह रोग मेरे ही पूर्वकृत कर्म के उदय के कारण आया है, पूर्व भव में मैंने भूल की होगी, अतः उसकी सजा का स्वीकार मुझे करना ही चाहिये ।
(२) कर्म एक प्रकार का ऋण 'कर्जा' है। पूर्व भव में दुष्प्रवृत्ति करके हम कर्म के देनदार बने हैं, उस दुःख को समतापूर्वक सहन कर लेने से मैं उस ऋण से मुक्त बन जाऊंगा।
(३) असाता के उदय में 'हाय ! हाय' ! करने से कोई दुःख जाने वाला नहीं है, अत: क्यों न उसे समतापूर्वक सहन किया जाय ?
(४) दुःख में आर्तध्यान करने से पुनः नए-नए कर्मों का बन्ध होता है, उन कर्मों के उदय से पुनः नया दुःख पाता है और इस प्रकार 'कर्म से दुःख और दुःख में पुनः नये कर्म का बन्ध' होने
मृत्यु की मंगल यात्रा-136