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आखिर वैद्य के रूप में रहे देव को कहना पड़ा, 'आत्मचिकित्सा का सामर्थ्य मुझ में नहीं है ।'
अपना मूल स्वरूप प्रगट करते हुए देव ने कहा, 'धन्य है आपकी समत्व साधना को, इन्द्र महाराजा ने आपकी जैसी प्रशंसा की थी, वैसी ही समता के धनी आप हो' - इतना कहकर नतमस्तक होकर देव ने वहाँ से विदाई ली ।
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'वैराग्यशतक' ग्रंथ के कर्त्ता हमें जगत् के यथार्थ स्वरूप के दर्शन करा रहे हैं। वे कहते हैं- 'मृत्यु तुमसे दूर नहीं है, मृत्यु तो तुम्हारे साथ ही चल रही है, जिस प्रकार व्यक्ति की छाया, व्यक्ति को छोड़कर दूर नहीं रहती है, वह तो जहाँ जाए, साथ ही रहती है, उसी प्रकार मृत्यु भी छाया के बहाने से अपने साथ ही चल रही है ।'
'जेबकतरे' के बारे में शायद सुना होगा ? वह साथ ही चलता है और अवसर देखकर चुपके से जेब काट देता है । बस, इसी प्रकार मृत्यु अपने साथ ही चल रही है । वह सतत हमारे छिद्र शोध रही है । अवसर पाते ही वह अपना हमला कर देती है और हमारे स्वामित्व व सम्बन्धों को तोड़ देती है ।
एक लेखक ने लिखा है, 'जन्म के साथ मौत निश्चित होती है, फिर भी डॉक्टर या स्वजन यह बात तभी कहते हैं, जब वह मौत के अति निकट पहुँच गया हो । परन्तु सत्य तो यह है कि जन्म के साथ ही बच्चे के लिए यह कह देना चाहिये 'यह जो बच्चा पैदा हुआ है, वह अब बच नहीं सकेगा ।'
मृत्यु की मंगल यात्रा - 126