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छाया के बहाने से सकल जीवों हुआ यह काल (मृत्यु) हमारे छोड़ता है, अतः धर्म के विषय में
अर्थ- हे भव्य प्राणियो ! के छिद्रों का अन्वेषरण करता सामीप्य को नहीं उद्यम करो ।
विपुल समृद्धि और सम्पत्ति के स्वामी होते हुए भी ज्योंही उन चक्रवर्तियों ने जगत् के यथार्थ क्षण-भंगुर स्वरूप को जाना, त्योंही उन्होंने बाह्य संसार का त्याग कर दिया ।
सनत्कुमार चक्रवर्ती ! जिसके पास रूप का अपूर्व वैभव था, इन्द्र ने भी जिसके अद्भुत रूप की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की थी और जिसके रूप-दर्शन के लिए देवताओं का भी आगमन हुआ था. ऐसे सनत्कुमार चक्रवर्ती ने ज्योंही इस काया की विकृति के दर्शन किए, त्योंही उनके मन में विरक्ति की ज्योति प्रगट हो गई थी ।
'अहो ! कितनी क्षणभंगुर व विकृतियों से भरी हुई काया है ? जो पहले इतनी सुन्दर व आकर्षक थी, उसी में से अब बदबू आ रही है ।' सम्यग्ज्ञान रूपी चक्षु द्वारा उन्होंने काया के स्वरूप का वास्तविक दर्शन किया और तुरन्त ही संसार के बन्धनों का त्याग कर वे वीतराग-पंथ के पथिक बन गए ।
७०० वर्ष तक उन्होंने उन रोगों को समतापूर्वक सहन किया | अरे ! देवताओं ने आकर परीक्षा की । वैद्य के रूप में आकर एक देव ने जब शारीरिक चिकित्सा के लिए निवेदन किया, तब वे यही बोले, 'मुझे काया के रोगों की फिक्र नहीं है, मुझे आत्मरोगों की चिन्ता है, यदि तुम उन रोगों को दूर करने में समर्थ हो तो मेरी चिकित्सा करो ।'
मृत्यु की मंगल यात्रा - 125