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शास्त्र में भी कहा गया है'जीवात्मा का प्रतिसमय आवीचि मरण चालू है।'
जन्म के साथ ही मृत्यु हमारे साथ चल रही है, परन्तु अज्ञान व मोह के कारण उस मृत्यु के दर्शन हम नहीं कर पाते हैं ।
अज्ञानी और ज्ञानी में यही तो अन्तर है कि अज्ञानी वस्तु के मात्र वर्तमान सुन्दर पर्याय का दर्शन कर उस वस्तु के प्रति राग कर बैठता है, जबकि ज्ञानी व्यक्ति वस्तु के मूल द्रव्य का विचार कर वस्तु के प्रति विरक्ति का भाव धारण करता है ।
ठीक ही कहा हैमधुरं रसमाप्य स्यन्दते ,
रसनायां रसलोभिनां जलम् । परिभाव्य विपाकसाध्वसं,
विरतानां तु ततो दृशिजलम् ॥ अर्थ--मधुर रस (स्वादिष्ट भोजन) को देखकर रस के लोभियों (प्रज्ञानियों) की जीभ में रस टपकता है और उसी मधुर रस को देखकर, उसके परिणमनशील स्वभाव का विचार कर विरक्त पुरुषों (ज्ञानीजनों) की आँखों में आँसू होते हैं अर्थात् वे वस्तु को वर्तमान पर्याय में राग भाव धारण नहीं करते हैं। . हर व्यक्ति अपने २५-५० वर्ष के जीवन में अनेक व्यक्तियों
और वस्तुओं के साथ स्वामी-सेवक, पिता-पुत्र, पति-पत्नी, मामाभाणेज, चाचा-भतीजा, भाई-भाई आदि विविध प्रकार के सम्बन्ध जोड़ता है और उन्हीं सम्बन्धों के दृढ़ीकरण के लिए सतत प्रयत्न
मृत्यु की मंगल यात्रा-127