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होती है। उस प्राज्ञा-पालन के लिए, अपने जीवन की कुर्बानी देने के लिए भी वह सदा तैयार रहता है। ऐसे समर्पित शिष्य ही गुरु के हृदय में वास करते हैं ।
__याद करो--कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्राचार्यजी भगवन्त के शिष्यरत्न प्राचार्यप्रवर श्री रामचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज को। कैसा अद्भुत समर्पण था, उनके जीवन में। गुरुदेव के विरह में भी गुरुदेवश्री की आज्ञा-पालन के लिए उन्होंने मृत्यु की भयंकर सजा भी सहर्ष स्वीकार की थी। ___ जो शिष्य अत्यन्त विनीत/नम्र और समर्पित है, उसे ही श्रुतज्ञान की प्राप्ति होती है और उसी श्रुतज्ञान के फलस्वरूप जीवन में विरक्ति और विरति की प्राप्ति होती है।
गुरु-विनय के साथ-साथ ज्यों-ज्यों सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है त्यों-त्यों संसार भयंकर लगता जाता है, संसार के विषयसुख नीरस और तुच्छ प्रतीत होते हैं । सम्पूर्ण संसार एक नाटक की भाँति प्रतीत होता है।
'वैराग्यशतक' ग्रंथ में ठीक ही कहा हैकालंमि प्रणाईए, जीवाणं विविहकम्मवसगाणं, तं मस्थि संविहाणं, संसारे जं न संभवइ ॥१०॥
अर्थ- 'अनादिकालीन इस संसार में नाना कर्मों के आधीन जीवात्मा को ऐसी कोई पर्याय नहीं है, जो संभवित न हो।'
प्रस्तुत गाथा में कर्माधीन आत्मा की दुर्दशा का चित्रण प्रस्तुत किया गया है। संसार में ऐसी कोई अवस्था या पर्याय नहीं है, जो अवस्था संसारी प्रात्मा प्राप्त नहीं करती हो ।
मृत्यु की मंगल यात्रा-131