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यह जीवन मुसाफिरखाने की भाँति है। जीवन तो विश्रामगह है । विश्राम-गृह में आखिर कितने समय तक रुका जाता है ? रुका जा सकता है ? परन्तु हमारा यही पागलपन है कि हमने 'विश्राम-गृह' को 'अपना गृह' मान लिया है और उसी भूल के कारण उसी को सजाने में.."उसी के संरक्षण में सदा प्रयत्नशील
किसी कवि ने आत्म-जागृति के लिए बहुत ही सुन्दर बात कही हैमोह से तेरा कमाया ,
___ धन यहीं रह जाएगा। प्रेम से प्रति पुष्ट किया ,
तन जलाया जाएगा। " तन फना है, धन फना है ,
स्थिर कोई जग में नहीं। प्राण प्यारा पुत्र दारा ,
सब यहाँ रह जाएगा। मात नहीं है, तात नहीं है,
सुत नहीं, तेरा सगा। स्वार्थ से सब अपने होते,
अन्त में देते दगा ॥ एकला यहाँ पे तू पाया ,
एकला ही जाएगा। क्यों बुरे तू कर्म करता,
नरक में दुःख पाएगा।
मृत्यु की मंगल यात्रा-120