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दोहर फरिंगदनाले,
महियरकेसर दिसामहदलिल्ले । श्री पियइ कालभमरो,
जरगमयरंदं पुहविषउमे ॥ ८ ॥
अर्थ - 'खेद है कि दीर्घ फरिणधर रूपी नाल पर पृथ्वी रूपी कमल है, पर्वत रूपी केसराए और दिशा रूपी बड़े-बड़े पत्र हैं, उस कमल पर बैठकर काल रूपी भ्रमर सतत जीव रूपी मकरन्द का पान कर रहा है ।'
जिस प्रकार भ्रमर सतत पुष्प के पराग / मकरन्द के पान में मस्त रहता है दिन और रात के भेद को वह भूल जाता है, उसी प्रकार काल रूपी भ्रमर सतत जीव रूपी मकरन्द का पान करता ही जा रहा है । इसमें कब अपना क्रम ( नम्बर ) श्रा जाएगा, कुछ भी पता नहीं है ।
आए दिन अखबारों में अनेक व्यक्तियों की मृत्यु के समाचार पढ़ते हैं...सुनते हैं, फिर भी हम अपने आपको मृत्यु से सुरक्षित ही समझते हैं ।
'मृत्यु' के संदर्भ में हमने दो सुरक्षा-शस्त्र खड़े कर लिए हैं(१) 'मृत्यु' सदा दूसरों की होती है ।
(२) 'मृत्यु' बहुत दूर है ।
इस प्रकार की चित्तवृत्ति के कारण हम स्वयं की मृत्यु को भूल बैठे हैं और जो मृत्यु को भूल बैठा है, वही व्यक्ति, संसार के पदार्थों के साथ अपने संबंध दृढ़ करता जाता है ।
मृत्यु की मंगल यात्रा - 119