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आत्मा के लिए विषपान से भी अधिक भयंकर है। विष तो एक जीवन का ही विनाश करता है, जबकि अशुभ साहित्य आत्मा के शुभ परिणामों का नाश कर आत्मा का भयंकर विनाश कर देता है।
शब्द की विनाश-लीला से बचने के लिए प्रतिदिन सत्साहित्य का सत्संग करना चाहिये। पूर्वाचार्य विरचित ग्रन्थों के पठनपाठन, स्वाध्याय, चिन्तन-मनन से आत्मोत्थान के मार्ग में आगे बढ़ने के लिए नई स्फूर्ति की प्राप्ति होती है ।
जीवन अर्थात् आयुष्य की अनित्यता बतलाते हुए 'वैराग्यशतक' में कहा है--
दिवसनिसाघडिमालं, पाउं सलिलं जियारण घेत्तणं । चंदाइच्चबइल्ला, कालऽरहट्ट भमाडंति ॥५॥
अर्थ-चन्द्र और सूर्य रूपी बैलों से जीवों के आयुष्य रूपी जल को दिन और रात रूपी घट में ग्रहण कर काल रूपी अरहट जीव को घुमाता है।
ग्रन्थकार महर्षि विविध उपमानों के द्वारा हमें जीवन की अनित्यता समझा रहे हैं।
जिस प्रकार एक किसान अरहट चलाकर मिट्टी के घड़ों द्वारा बैलों को घुमाकर कुए से जल निकालता है, उसी प्रकार काल रूपी किसान अरहट को घुमा रहा है, जिसमें सूर्य और चन्द्र रूपी बैल जुते हुए हैं, दिन और रात रूपी घड़े हैं। इस अरहट को घुमाकर जीव का आयुष्य रूपी जल खींचा जा रहा है :
मृत्यु की मंगल यात्रा-105