Book Title: Mrutyu Ki Mangal Yatra
Author(s): Ratnasenvijay
Publisher: Swadhyay Sangh

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Page 131
________________ से चबाता रहता है । हड्डी में से रक्त की प्राप्ति कुत्ते का भ्रम ही है। इसी प्रकार जड़ पदार्थों में सुख की कल्पना करना भी भ्रान्ति रूप ही है, इस भ्रान्ति के दूर होने पर ही आत्मा का प्रयास, प्रात्म-सुख की प्राप्ति के लिए होता है। परन्तु अनादि के मोह के आवरण के कारण बाह्य पदार्थों में ही सुख की भ्रान्ति के कारण, आत्मा उन्हीं पदार्थों को जोड़ने के लिए प्रयत्नशील बनता है। स्व-स्वरूप की अज्ञानता के कारण जड़-देह में प्रात्मा की बुद्धि करके उसी के रक्षण और संवर्धन में आत्मा प्रयत्नशील बनती है परन्तु हम यह भूल जाते हैं कि यह देह तो क्षण विनश्वर है। 'वैराग्यशतक' की ७वीं गाथा में देह की विनश्वरता को बतलाते हुए बहुत ही सुन्दर कहा है 'सा नस्थि कला तं नस्थि, प्रोसहं तं नत्थि कि पि विन्नारण । जेरण धरिज्जइ काया, खज्जंती कालसप्पेणं ॥७॥ अर्थ-ऐसी कोई कला नहीं है, ऐसी कोई औषधि नहीं है, ऐसा कोई विज्ञान नहीं है कि जिसके द्वारा काल रूपी सर्प के द्वारा खाई जाती हुई इस काया को बचाया जा सके। काया की नश्वरता का कितना सटीक चित्रण है ! दुनिया में अनेक प्रकार की औषधिय उपलब्धाँ हैं, जिनके द्वारा अनेक प्रकार के रोग मिटाये जा सकते हैं... परन्तु ऐसी कोई मृत्यु की मंगल यात्रा-112

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