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'प्रशमरति सूत्र' में ग्रन्थकार महर्षि संसार के स्नेह/प्रेम को धिक्कारते हैं। संसार में निर्दोष प्रेम कहाँ मिलता है ? वह तो प्रेम के लिबास में कोरा स्वार्थ ही होता है।
सुनी हुई घटना है।
बम्बई में दो भाई रहते थे। उन दोनों में अपूर्व प्रेम था। एक दिन छोटे भाई ने बड़े भाई को अपने घर आने के लिए आमंत्रण दिया। दोनों भाई वातानुकूलित कक्ष में एक ही टेबल पर बैठकर एक ही थाली में मिजबानी उड़ा रहे थे। बहुत ही आनन्द से दोनों भाइयों ने भोजन किया"ौर भोजन की समाप्ति के बाद पता नहीं क्या घटना बनी? कहाँ से आग की चिनगारी आ गिरी ? ...और वे भाई परस्पर झगड़ पड़े। एक दूसरे को मारने के लिए तैयार हो गए.".",दोपहर के समय वह मामला अदालत में गया और आखिर वे दोनों भाई जीवन भर के लिए एक दूसरे के दुश्मन हो गए।
ऐसी तो अनेक घटनाएँ हमारे दैनिक जीवन-व्यवहार में देखने, पढ़ने व सुनने को मिलती हैं।
वृक्ष जब हरा-भरा होता है, तब अनेक पक्षी आकर उस वृक्ष पर घोंसला बनाते हैं, कोयल के कूजन से वह वृक्ष गूंज उठता है, पथिक आकर उस वृक्ष के नीचे विश्राम करते हैं, माली आकर उस वृक्ष का सिंचन करता है, परन्तु जब वही वृक्ष जीर्ण-शीर्ण हो जाता है, फल-फूल से रहित हो जाता है, तब उस वृक्ष के पास कौन आता है ? कोई नहीं।
गाय जब तक दूध देती है, तब तक उसे हरा घास खिलाते
मृत्यु की मंगल यात्रा-88