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The mind in its own place and in itself can make a heaven of hell and a hell of heaven.
प्रिय 'दीपक' !
धर्मलाभ।
सौराष्ट्र की पावन धरा पर विहार-यात्रा सानन्द चल रही है।
उपाश्रय में प्रवेश करते ही तुम्हारा पत्र मिला ।
तुम्हारे विचारों को जानने की इच्छा हुई. पत्र खोला, पढ़ा और प्रसन्नता का अनुभव हुआ।
'वैराग्य शतक' ग्रन्थ के अवगाहन में तुम्हें बड़ा आनन्द प्रा रहा है, यह जानकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। सचमुच ही यह ग्रन्थ 'गागर में सागर' तुल्य है।
निर्मल संयम-जीवन की साधना के बाद ग्रन्थकार महर्षि के अन्तःकरण में से निकले ये शब्द सीधे ही अपने हृदय पर चोट करते हैं।
मृत्यु की मंगल यात्रा-86