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खरीदूंगा..."पुनः उन्हें बेचूंगा. फिर मेरे पास पाँच रुपये हो जाएंगे..."मैं एक बकरी खरीद लूगा"बकरी दूध देगी."उसे बाजार में बेचूंगा...फिर धीरे-धीरे एक गाय खरीद लूगा गाय दूध देगी दूध बाजार में बेचू गा.गाय के बछड़े पैदा होंगे.... फिर एक भैंस खरीदूंगा" भैंस दूध देगी. फिर मैं एक छोटीसी दुकान कर लूगा... फिर मेरे पास दो पैसे होने से एक सुन्दर कन्या के साथ विवाह करूंगा। फिर मेरा एक छोटा सा परिवार होगा... मैं घर का अधिपति बनूगा और उस समय कोई मेरी बात नहीं मानेगा अथवा मेरा कोई अपमान करेगा तो उसे जोर से थप्पड़ लगाऊंगा।" इस प्रकार शेखचिल्ली कल्पना का जाल रच रहा था और उसी समय थप्पड़ लगाने के लिए शेखचिल्ली ने हाथ ऊँचा उठाया और उसी के साथ सिर पर रखा घी का घड़ा नीचे गिर पड़ा सारा घी जमीन पर फैल गया।
घी का घड़ा फूटते ही सेठजी एकदम गुस्से वाले हो गए और इसके साथ ही शेखचिल्ली की कल्पना का महल वहीं भस्मीभूत हो गया।
। बस, इसी प्रकार शेखचिल्ली की भाँति इस संसार में अर्थ और काम के क्षणिक भोग-सुखों में आसक्त बनी आत्मा उन सुखों को पाने के लिए प्रयत्न करती रहती है, परन्तु आशा के गुलाम को कभी भी तृप्ति का अनुभव नहीं होता है ।
भगवान महावीर प्रभु ने 'उत्तराध्ययन सूत्र' में ठीक ही कहा है
इच्छाप्रो पागाससमा अणंतिमा।
मृत्यु की मंगल यात्रा-75